योगकुण्डलिनी
कृष्ण
यजुर्वेद
3
अध्याय, 173
श्लोक
o 1 86 श्लोक
o 2 49 श्लोक
o 3 35 श्लोक
चित्त
की चंचलता के
कारण 2
o हेतुद्वयं
हि चित्तस्य
वासना च
समीरणः ।
तयोर्विनष्ट
एकस्मिंस्तद्द्वावपि
विनश्यतः ॥
वासना
(संस्कार)
समीरण
(प्राण)
इनमें से
एक के भी नष्ट होने
पर दोनों नष्ट
हो जाते है।
प्राण
पर विजय पाने
के उपाय 3
o मिताहार
o आसन
o शक्तिचालिनी
मुद्रा
मिताहार
o सुस्निग्धमधुराहारश्चतुर्थांशविवर्जितः
॥
भुज्यते
शिवसंप्रीत्यै
मिताहारः स
उच्यते ।
आसन 2
प्रकार
o आसनं
द्विविधं
प्रोक्तं
पद्मं
वज्रासनं तथा
॥
पद्मासन
वज्रासन
वामाङ्घ्रिमूलकन्दाधो
ह्यन्यं
तदुपरि क्षिपेत्
।
समग्रीवशिरःकायो
वज्रासनमितीरितम्
॥
शक्तिचालिनी
मुद्रा
o कुण्डल्येव
भवेच्छक्तिस्तां
तु
संचालयेद्बुध
।
स्वस्थानादाभ्रुवोर्मध्यं
शक्तिचालनमुच्यते
॥
o शरीर के
अंदर मुख्य
शक्ति
कुंडलिनी को
कहा गया है।
इस शक्ति का
अपने स्थान से
चालन करके
भ्रूमध्य क लो
आना शक्ति
चालिनी
कहलाता है।
o इस
शक्तिचालन के 2
उपाय है
तत्साधने
द्वयं मुख्यं
सरस्वत्यास्तु
चालनम् ।
प्राणरोधमथाभ्यासादृज्वी
कुण्डलिनी
भवेत् ॥
सरस्वती
चालन
प्राण
रोध
सरस्वती
चालन
अरुन्धती भी
कहते है।
o अरुन्धत्येव
कथिता पुराविद्भिः
सरस्वती ॥
o यस्याः
संचालनेनैव स्वयं
चलति कुण्डली
।
इस
अरुन्धती के
चालन से
कुंडलिनी
स्वयं ही चलने
लगती है।
o प्रक्रिया
इडायां
वहति प्राणे
बद्ध्वा
पद्मासनं
दृढम् ॥
द्वादशाङ्गुलदैर्घ्यं
च अम्बरं चतुरङ्गुलम्
।
विस्तीर्य
तेन तन्नाडीं
वेष्टयित्वा
ततः सुधीः ॥
अङ्गुष्ठतर्जनीभ्यां
तु
हस्ताभ्यां
धारयेद्धृढम्
।
स्वशक्त्या
चालयेद्वामे
दक्षिणेन
पुनःपुनः ॥
मुहूर्तद्वयपर्यन्तं
निर्भयाच्चालयेत्सुधीः
।
ऊर्ध्वमाकर्षयेत्किंचित्सुषुम्नां
कुण्डलीगताम्
॥
तस्मात्संचालयेन्नित्यं
शब्दगर्भां
सरस्वतीम् ।
गुल्मं
जलोदरः
प्लीहा ये
चान्ये
तुन्दमध्यगाः
।
सर्वे ते
शक्तिचालेन
रोगा
नश्यन्ति
निश्चयम् ॥
इडा नाडी
से प्राण चलने
पर अच्छी तरह
से पद्मासन
में बैठे।
12 अंगुल
लंबा और 4
अंगुल चौडा
कपडे के
द्वारा सरस्वती
नाडी को
आवृत्त (ढकें)
करें
प्राणरोध
o देह में
स्थित वायु को
प्राण कहा
जाता है। उस
प्राण का आयाम
(स्थिर, रोकना)
करना
प्राणायाम कहलाता
है, इसे कुंभक
भी कहा जाता
है।
o कुंभक 2
प्रकार
केवल
कुंभक (सबसे
उत्तम)
सहित
1.
सूर्यभेदी
2.
उज्जायी
3.
शीतली
4.
भस्त्रिका
प्राणश्च
दहनो वायुरायामः
कुम्भकः
स्मृतः ॥
स एव द्विविधः
प्रोक्तः सहितः
केवलस्तथा ।
यावत्केवलसिद्धिः
स्यात्तावत्सहितमभ्यसेत्
॥
सूर्योज्जायी
शीतली च
भस्त्री चैव
चतुर्थिका ।
o जब तक केवल
कुम्भक सिद्ध
न हो जाए तब तक
सहित कुंभक का
अभ्यास करना
चाहिए।
सूर्यभेदी
-
o स्थान
पवित्र हो,
निर्जन हो,
शर्करादि से
रहित, शीत,
अग्नि, जल न हो (4
हाथ दूरी तक)
o ऊँचा-नीचा
न हो, ऐसा
स्थान पर बद्ध
पद्मासन में
बैठकर पहले सरस्वती
नाडी का चालन
करें, फिर
दायी नाडी (पिंगला)
से पूरक करें,
और इडा नाडी
से रेचक करें,
इसी
प्रक्रिया को
सूर्यभेदी
कहते है।
o लाभ
4
प्रकार के वायु
दोष और कृमि
दोष नष्ट हो
जाते है।
उज्जयी
o मुख को
बंद करके
दोनों नडियों
से पूरक करें, इस
पूरक को इस
प्रकार करना
चाहिए
की वायु
कंठ से हृदय
पर्यंत लगती
हुई प्रतीत हो,
फिर कुंभक
करें तथा फिर इड़ा
से रेचक करें।
o लाभ
शीर्ष
(सिर) में
उत्पन्न
गर्मी नष्ट
होती है,
गले के
कफ संबंधी रोग
(श्लेष्म संबंधी
रोग) दूर होते
हैं।
सभी रोगों
को नष्ट करता
है
पुण्य
प्राप्त
कराता है
शरीर की
अग्नि को
बढ़ाता है
नाड़ी,
जलोदर, धातुगत
के दोषों को
नष्ट करता है
o उठते
बैठते
चलते-फिरते
उज्जायी
प्राणायाम
करते रहना
चाहिए
शीतली
-
o जिह्वा से
वायु का पूरक,
o फिर कुंभक,
o फिर दोनों
नासिकाओं
रेचक
o लाभ
गुल्म,
प्लीहा
इत्यादि दोष
नष्ट हो जाते
हैं
पित्त,
ज्वर, तृषा (प्यास)
शांत हो जाती
है
क्षय और
विष शांत होते
है
भस्त्रिका
-
o पद्मासन
लगाकर उदर और ग्रीवा
को सीधा रखकर
मुख को बंद
करके नासिका
से प्राणों का
रेचन करें (शब्द
पूर्वक)
o वेग से
पूरक करें,
फिर रेचक करें
o लाभ
कंठ स्थित
अग्नि नष्ट हो
जाती है
शरीर की
अग्नि बढ़ती
है
कुंडलिनी
बोध (जागृत)
होता है
पुण्य की
प्राप्ति, पाप
का नाश
सुखदायक
ब्रह्म
नाडी के मुख
पर स्थित कफ
इत्यादि
दोषों को नष्ट
करने वाली
3 गुणों से
उत्पन्न
ग्रंथियों का भेदन
करने वाला, (ब्रह्म,
विष्णु, रुद्र
ग्रंथि)
o भस्त्रिका
प्राणायाम के
द्वारा थकान
होने पर
सूर्यनाड़ी
से पूरक करना
चाहिए, कुंभक
और इडा से
रेचक।
इन
4 कुंभक के
साथ में 3 बंध भी
करने चाहिए
मूलबंध
उड्यानबंध
जालंधर
बंध
मूलबंध
o लाभ -
कुंडलिनी
जागरण
मूलबंध के
द्वारा अपान
वायु ऊपर
जाकर,
वह्नि मंडल (अग्नि)
को प्रदीप्त
करता है।
उस अग्नी
से शरीर के
सभी विकार
नष्ट हो जाते
हैं, पश्चात्
तप्त होकर
कुंडलिनी
शक्ति जागृत
हो जाती है
उड्यानबंध
o कुंभक के
अंत और रेचक
के आदि में
करना चाहिए
o इसके करने
से प्राण
सुषुम्ना
नाड़ी में
उड़ने लगता है
इसीलिए इसे उड्यानबंध
कहते हैं
o इसे
वज्रासन में
करना चाहिए
o लाभ
पेट के
सभी विकार दूर
हो जाते हैं
जालंधर
बंध
o पूरक के
अंत में
जालंधर बंध
करना चाहिए
o गुदा का
संकोच करने के
बाद कंठ संकोच
करना चाहिए
मूलबंध
जालंधर - उड्यान (सीक्वेंस)
o ऐसा करने
से प्राण
सुषुम्ना में
गति करता है
कुंभक
की संख्या
o 4 कुम्भकों
को पहले दिन 10-10
बार
o अगले दिन 5-5
बढ़ा देंगे (15-15 x 4)
o अगले दिन 5-5
पढ़ा देंगे (20-20 x 4)
o 80 बार
कुंभक करना
चाहिए
o इन कुंभको
3 बंधों
के साथ करना
चाहिए
रोग
उत्पन्न होने
के कारण
o दिन में
सोना
o रात में
जागना
o अति मैथुन
o अधिक चलना
(बहु संक्रमण)
o मूत्र और
पुरीष (शौच) के
वेग को रोकना
o उल्टे
सीधे (विषम)
आसन करना
o प्राणायाम
में अत्यधिक
बल लगाना
योग
के विघ्न (10)
1.
मैं
रोगी हो
जाऊंगा, ऐसा
कहकर
योगाभ्यास
छोड़ देना
2.
संशय
3.
प्रमाद
4.
आलस्य
5.
निद्रा
6.
विरति
(हठयोग से)
7.
भ्रैंति
8.
विषय
(सांसारिक)
9.
अनाख्या
(अप्रसिद्धि)
10. योग तत्व
की अलब्धि (प्राप्त
न हो ना)
o ज्ञानी
पुरुष विचार
के द्वारा इन दसों
विघ्नों को
छोड़ दे
3
प्रकार की
ग्रंथियों का
भेद है -
जब
प्राण और अपान
से उत्पन्न
गर्मी से तप्त
होकर
कुंडलिनी
शक्ति जागृत
होकर
सुषुम्ना नाड़ी
के मुख में
प्रवेश करने
लगती है तब
o वह शक्ति
रजोगुण से
उत्पादित ब्रह्म
ग्रंथि का
भेदन कर
सुषुम्ना में
प्रवेश कर
जाती है
o वहां से
शीघ्र ही हृदय
चक्र में
स्थित विष्णु
ग्रंथि का
भेदन करती है (सत्व
गुण) (अन्य
ग्रंथ अनुसार)
o और ऊपर
जाकर वह आज्ञा
चक्र में रुद्र
ग्रंथि का
भेदन करती है
o भेदन करने
के पश्चात् वह
चंद्र (ताल)
स्थान पर
पहुंच जाती है,
जहां पर 16 दल
वाला अनाहत
चक्र स्थित है
o इस स्थिति
में पहुंचकर
आत्मा
अमृतस्वरूप आनंद
का अनुभव करती
है
o प्राण और
अपान का संगम शिव
में हो जाता
है
o लाभ
आदिभौतिक देह
आदिदैविक
शरीर में बदल
जाता है
शरीर
पवित्र होकर
अत्यंत
सूक्ष्म हो जाता
है
जड़ता को
छोड़कर चेतनमय
हो जाता है
भव बंधन
से मुक्त हो
जाता है
काल के पाश
से (बंधन से)
मुक्त हो जाता
है, कालातीत
हो जाता है
संपूर्ण
संसार रज्जू मय
सर्प के समान
मिथ्या है
शरीर पिंड
और ब्रह्मांड
पिण्ड की एकता
हो जाती है
सूक्ष्म
शरीर (कारण
शरीर) और
आत्मा की एकता
हो जाती है
इसमें
खेचरी मुद्रा
की चर्चा है (चैप्टर
2)
खोचरी
की सिद्धि के
लिए मेलन
मंत्र
o ह्रीं भं
सं मं पं सं
क्षम्
o यदि 5 लाख
बार इसे बोले
तो खेचरी
मुद्रा स्वयं
लग जाती है
चैप्टर 3
एक
जिज्ञासु
आचार्य शंकर
से पूछता है
अमावस्या,
प्रतिपदा और
पूर्णमासी, इन
सब का साधक के
लिए क्या
अभिप्राय है?
अमावस्या
- आत्मा
अनुसंधान के
पहले चरण में
साधक की दृष्टि
प्रकाश रहित
अमावस्या
जैसी होती है
प्रतिपदा
- अल्प
प्रकाश वाली (प्रथम
तिथि)
पूर्णमासी
- पूर्ण
प्रकाश वाली
स्थिति
विषय
और कामना एक दूसरे
को बढ़ाते हैं, अतः
योगी को चाहिए
कि वह दोनों
का त्याग करके
निरंजन
परमात्मा का
आश्रय ले
मन
की महत्ता - जो
व्यक्ति मन से
ही मन का अवलोकन
(observe) कर
विषयों को
छोड़ देते हैं
वह परम पद को
प्राप्त करते
हैं
मन
ही बुद्धि है, (ईश्वर)
क्योंकि वह
ईश्वर को
प्राप्त कर
सकता है।
जिससे इस जगत
की स्थिति और
उत्पत्ति
होती है
जैसे
दूध से घृत
उत्पन्न होता
है वैसे ही मन
से बिंदु
उत्पन्न होता
है
चंद्र
और अर्क (सूर्य)
मंडल में
स्थित जो
शक्ति है (इनके
मध्य) वही
बंधनकारक है।
जो व्यक्ति
ऐसा जान लेता
है वह
सुषुम्ना
नाड़ी में उन
शक्तियों का भेदन
करके स्थिति (उच्च)
को प्राप्त कर
लेता है
6
चक्र
चक्र |
स्थान |
मूलाधार |
गुदा |
स्वाधिष्ठान |
लिङ्ग |
मणिपुर |
नाभि |
अनाहत |
हृदय |
विशुद्धि |
कण्ठ |
आज्ञा |
मस्तिष्क |
इन
6 चक्रों को
जानकर सुख
मंडल (सहस्रार)
में प्रवेश
करना चाहिए और
वही वह वायु
को नियोजित
करना चाहिए
ऐसा
करने से वह
वायु
ब्रह्मांडमय
हो जाती है, और
समाधि की
प्राप्ति
होती है
जिस
प्रकार लकड़ी
के भीतर रहने
वाला अग्नि मंथन
के बिना प्रकट
नहीं होता उसी
तरह बिना अभ्यास
के ज्ञान रूपी
दीपक प्रकट
नहीं होता
जैसे
बिना घड़ा
टूटे अंदर का
दीपक
प्रकाशित नहीं
होता वैसे ही
बिना गुरु
ज्ञान के शरीर
तोड़े हुए
अंदर दीपक
रूपी ब्रह्म
प्रकट नहीं
होता
गुरु संसार
रूपी सागर से
पार कराने के
लिए कर्णधार
नाविक है
4
प्रकार की वाणी
o अभ्यास + वासना
o अभ्यास और
अच्छे
संस्कारों से
ही साधक लोग
भव रूपी सागर
को पार कर
सकते हैं जिस
प्रक्रिया
में 4
स्थितिया
होती है
परावाणी - इसमें
परा वाणी
अंकुरित होती
हैं
पश्यन्ति - दो दल (पत्ते)
वाली
मुकुलित (मध्यमा) फूल
निकल आते है
वैखरी - पूर्ण
रूप से विकसित
हो जाती है
o परावाणी - पश्यन्ती
मध्यमा
- वैखरी
o इन सब वाणियों
का बोधक
परमदेव मैं ही
हूं ऐसा जो
जान लेता है
वह संसार में
लिप्त नहीं होता
शरीर
पिंड और
ब्रह्मांड
पिंड
|
शरीर
पिण्ड |
ब्रह्माण्ड
पिण्ड |
लोक |
स्थूल |
विश्व |
विराट |
भूः |
सूक्ष्म |
तैजस |
हिरण्यगर्भ |
भुवः |
|
प्राज्ञ |
ऐश्वर |
स्वः |
परमपद
के प्राप्त
करने पर ये
सभी लोक और
पिंड प्रत्यगात्मा
(ईश्वर) में
लीन हो जाते
हैं जो ब्रह्म
को जान लेता
है वह ब्रह्ममय
हो जाता है
ब्रह्म
रूप होने पर
लक्षण
स्तिमित - स्थिर
गंभीर
वहां तेज और
प्रकाश नहीं
होता
अनभिव्यक्त
अकथनीय
सत् किंचित
- कुछ है मूल
स्थिति में
जो
व्यक्ति सोते
जागते हुए
ईश्वर का
ध्यान करता है
वह जीवनमुक्त
है, कृतकृत्य
है, धन्य हैं
Means of Self
Realisation
o गुरु,
ज्ञान,
कुंडलिनी,
अभ्यास, वासना,
खेचरी मुद्रा
ब्रह्म
प्राप्ति के
साधन
कुंडलिनी
चालन
षट्चक्र
भेदन - ग्रंथि
भेदन
खेचरी
मुद्रा
आत्म
अनुसंधान
साधना
ध्यान की
प्रक्रिया 6
चक्र