त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषत् नोट्स

त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषत्

त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषत्

      शुक्ल यजुर्वेद

o  मंत्र - 165

      इस उपनिषद को 2 भागों में विभाजित किया गया है

o  ब्राम्हण भाग (गद्य)

o  मंत्र भाग (पद्य)

      इसे त्रिषिखि नामक ब्राह्मण आदित्य लोक में जाकर आदित्य देव से प्रश्न करता है

      यह (शरीर) देह क्या है? यह प्राण क्या है? इस जगत का कारण क्या है? आत्मा क्या है?

      यह सब कुछ शिव ही है अविद्या बल ब्रह्मा से जुड़ा

      अविद्या से जुड़ा हुआ जो ब्रह्म है वही एकमात्र तत्व है

      उत्पत्ति क्रम

o  ब्रह्मा - अव्यक्त महत् हंकार 5 तन्मत्राएं 5 महाभूत - संपूर्ण जगत

      5 महाभूतों के प्रतीक

महाभूत

प्रतीक

आकाश

मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, (4 अन्तःकरण)

वायु

समान, उदान, व्यान, अपान, प्राण

अग्नि

त्वक्, चक्षु, घ्राण, श्रोत्र, जिह्वा (5 ज्ञानेन्द्रय)

जल (आप)

शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध (5 विषय)

पृथ्वी

वाक्, पाणि (हाथ), पाद (पैर), पायु (anus), उपस्थ (जननेन्द्रिय) (5 कर्मेन्द्रिय)

 

      योग के 2 मार्ग

o  कर्मयोग

o  ज्ञान योग

      कर्मयोग

o  यह मेरा कर्तव्य कर्म ही है

o  कर्म कर्तव्यमित्येव विहितेष्वेव कर्मसु ॥

o  विहित (विधान किए गए कर्म) कर्मों में ऐसा भाव रखना कर्मयोग है

      ज्ञानयोग

o  श्रेयस (मोक्ष) के लिए चित्त का निरंतर जुड़े रहना ज्ञानयोग कहलाता है

o  यत्तु चित्तस्य सततमर्थे श्रेयसि बन्धनम् ॥

      2 प्रकार से ही योगी का संयोग होता है

o  कर्म से संयोग

o  ज्ञान से संयोग

      लाभ - मोक्ष की प्राप्ति या परमेश्वर की प्राप्ति

अष्टांग योग

परिभाषा

यम

शरीर और इंन्द्रिय से वैराग्य

देहेन्द्रियेषु वैराग्यम्

नियम

परम तत्व में निरंतर अनुराग होना

परे तत्वे सततं अनुरक्तिः

आसन

सभी वस्तुओं से उदासीन भाव रखना

सर्ववस्तुनि उदासीनभावम्

प्राणायाम

सारा जगत मिथ्या है ऐसी प्रतीती

जगत्सर्वमिदं मिथ्याप्रतीतिः

प्रत्याहार

चित्त का अंतर्मुखी भा

चित्तस्य अंतर्मुखी भावः

धारणा

चित्त का निश्चल हो जाना

चित्तस्य निश्चलीभावः

ध्यान

वह मै चित्त मात्र ही हूं ऐसा चिंतन ध्यान है

सोऽहं चिन्मात्रमेव इति चिन्तनम्

समाधि

ध्यान की पूर्णतः विस्मृति हो जाना

ध्यानस्य सम्यक् विस्मृतिः

 

      यम 10

o  अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यं दयार्जवम् ॥
क्षमा धृतिर्मिताहारः शौचं चेति यमादश ।


1.      अहिंसा,

2.      सत्य,

3.      अस्तेय,

4.      ब्रह्मचर्य,

5.      दया,

6.      र्जव (सरलता),

7.      क्षमा,

8.      धृति (धैर्य)

9.      मिताहार,

10.  शौ


      नियम 10

o  तपः सन्तुष्टिरास्तिक्यं दानमाराधनं हरेः ॥
वेदान्तश्रवणं चैव ह्रीर्मतिश्च जपो व्रतम् ॥


1.      प,

2.      संतोष,

3.      आस्तिकता (गुरु, शास्त्रों में श्रद्धा, वेदों को मानना),

4.      दान,

5.      ईश्वर का आराधन,

6.      वेदांत का श्रवण,

7.      ह्री (लज्जा),

8.      ति (बुद्धि),

9.      जप

10.  व्रत


      आसन विधि (17)


1.      स्वस्तिकासन

2.      गोमुखासन

3.      वीरासन (पापों का नाश करने वाला)

4.      योगासन

5.      पद्मासन (सभी रोगों का नाश)

6.      बद्धपद्मासन

7.      कुक्कुटासन

8.      उत्तानकूर्मासन

9.      धनुरासन

10.  सिंहरूपक (सिंहासन)

11.  भद्रासन

12.  मुक्तासन

13.  मयूरासन

14.  मत्स्यपीठ

15.  सिद्धासन

16.  पश्चिमोत्तानासन

17.  सुखासन


      लाभ - आसनों के सिद्ध होने पर व्यक्ति तीनों लोकों को जीत लेता है

o  (पृथ्वी, अंतरिक्ष, द्यौ लो)

      यम, नियम और आसन के द्वारा व्यक्ति संयमित होकर नाड़ी शोधन (शुद्धि) करें, पश्चात् प्राणायाम करें

      शरीर से बाहर प्राण की गति 12 अंगुल तक होती है (Same as GS)

      शरीर का परिमाण 96 अंगुल है (GS)

      प्राणायाम के द्वारा उत्पन्न अग्नियोग के द्वारा प्राण को नियंत्रित करके ब्रह्म को प्राप्त किया जा सकता है

o  अग्नियोग - प्राण के द्वारा अग्नि को प्रदीप्त करना (कुंडलिनी)

      शरीर में अग्नि के प्रकार, स्थान का प्रकार

अग्नि

स्थान का प्रकार

मनुष्य

त्रिकोणाकार (triangle)

पशु

चारकोण (square)

पक्षियॉ

वृत्ताकार (circle)

सर्प इत्यादि जाति में (सर्पजन्य)

षट्कोणाकार (hexagon)

स्वेदज जीव

अष्टकोणाकार (octagon)

 

      मनुष्य अग्नि स्थान पर 12 दलों का चक्र पाया जाता है

o  उसके ऊपर कुंडलिनी का स्थान माना जाता है

      कुंडलिनी - 8 फेरे बनाकर ब्रह्मनाड़ी के मु को अपने मुख के द्वारा बंद करके सोई हुई है

      योगाभ्यास (प्राणायाम) के द्वारा/कारण व कुंडलिनी शक्ति प्राप्त होकर जग जाती है

      सुषुम्ना को ब्रह्मनाडि या वैष्णवी भी कहा जाता है

नाडी

स्थान

इडा

वाम नासिका

पिङ्गला

दक्षिण नासिका

सुषुम्ना

दोनों के मध्य

गान्धारी

वाम चक्षु

हस्तिजिह्वा

दक्षिण चक्षु

पूषा

दक्षिण कर्ण

यशस्विनी

वाम कर्ण

अलम्बुसा

पायुमूला

शुभा

मेढ्र (लिङ्ग)

कौशिकी

पैर का अंगूठा

 

      यह 10 प्रकार की नाडिया कंद से उत्पन्न होती है

      इनके अलावा अनेक स्थूल एवं सूक्ष्म नाडिया भी है इस प्रकार नाड़ियों की संख्या 72,000 मानी जाती है

      प्राण -

नाम

स्थान

कार्य

प्राण

मुख और नासिका मध्य

हृदय,

नाभि तथा

पैर का अंगूठा

      आमाशय में जल, रस और अन्न को मिलाता है, (समीकृत)

      मिश्रण के पश्चात् उसे अलग अलग करता है

अपान

गुदा, मेढ्र, ऊरु, जानु

मल-मूत्र का विसर्जन

समान

संपूर्ण शरीर

शरीर का पोषण

उदान

हाथ, पैर, सभी सन्धि स्थल

ऊपर की ओर उठाता है

व्यान

श्रोत्र, ऊरु, कटि(lower back), गुल्फ (ankle), स्कन्ध, गला

प्राण-अपान की क्रियाओं को सहयोग करना

 

      उपप्राण

नाग

उद्गार (डकार)

कूर्म

आंखो का उन्मिलन

कृकर

क्षुधा

देवदत्त

निद्रा (जम्हाई)

धनन्जय

मृत्यु के बाद भी बना रहता है

 

      10 प्राणों में 5 प्राण मुख्य है

o  5 में 2 मुख्य है। - प्राण, अपान

  2 में एक मुख्य है। - प्राण

      आसन प्रकार

  र्भ (घास),

  कुश,

  कृष्णाजिन (काले हिरण का चर्म)

o  इनमें से किसी एक आसन पर अपनी रूचि के अनुसार स्वस्तिकादि आसन में बैठकर नाक के अग्रभाग पर दृष्टि रखनी चाहिए

o  दांतो को दांतो से स्पर्श किए बिना जिह्वा को तालू में लगाकर सिर को थोड़ासा झुकाकर योगमुद्रा में प्राणायाम का अभ्यास करें

      16 मात्रा से इडा से पूर

      64 मात्रा से कुंभक

      32 मात्रा से पिंगला से चेक करें

o  इस प्रक्रिया को विपरीत क्रम से भी करना चाहिए

      इस प्रक्रिया के करने से नाडियों में वायु का संचालन अच्छे प्रकार से होने लगता है

      कुंभक का समय

  प्रातः

  मध्यान

  सायं

  अर्धरात्रि

      कुंभक की मात्रा को धीरे धीरे 80 मात्रा तक बढ़ाना चाहिए

      प्राणायाम

o  1 दिन - सभी पापों का नाश

o  3 साल


  योगी सिद्ध हो जाता है,

  इंद्रिय जय

  कम खाने वाला

  कम निद्रा वाला

  तेजस्वी

  बलवान

  मृत्यु को पार कर दीर्घायु हो जाता है


      प्राणायाम की 3 स्थितियां -

स्थिति

शरीर पर प्रभाव

लाभ

अधम

पसीना उत्पन्न होना

पाप व रोगों का नाश

मध्यम

कंपन

पाप, महारोग का नाश

उत्तम

ऊपर उठ जाता है

मल-मूत्र अल्प हो जाते है, शरीर हल्का,

मिताहारी,

इन्द्रियों पर नियंत्रण,

बुद्धि तीव्र,

तीनों कालों को जानने वाला

 

      केवल कुंभक - रेचक और पूरक को छोड़कर कुंभक करना केवल कुंभक कहलाता है

o  लाभ - तीनों कालों में कुछ भी दुर्लभ नहीं है

      धारणा - नासिका के अग्रभाग में धारणा करने से, तथा दोनों पैरों के अंगूठे पर धारणा करने से योगी सभी रोगों से दूर हो जाता है, तथा पेट के सभी रोग दूर हो जाते हैं

      नासिका के अग्रभाग पर धारणा करने से लंबी आयु तथा शरीर हल्का हो जाता है

      शरीर में जहां-जहां वायु धारण किया जाता है उस उस अंग के रोगों का नाश हो जाता है

      मन को धारण करने से प्राण धारणा उत्पन्न होती है। (प्राणों को सिद्ध करने के लिए)

अरिष्ट लक्षण

अंग का स्फिरण रुकना (फड़कना)

मृत्यु का समय

पैर और हाथ का अंगूठा

1 वर्ष बाद

मणिबंध और गुल्फ (ankle)

6 सहीने बाद

कोघ्नी (कूर्पर)

3 मास

कुक्षि, उपस्थ, पार्श्व

1 मास

आंख

15 दिन

जठर

10 दिन

सूर्य और चन्द्र की ज्योति पतंगे सी दिखाई देना

5 दिन

जिह्वाग्र

3 दिन

ज्वाला का दर्शन

2 दिन

 

      प्रत्याहार

o  एक स्थान से दूसरे स्थान में खींचने की प्रक्रिया को प्रत्याहार कहते हैं

      18 मर्म स्थान

o  इन 18 मर्म स्थानों में मन की धारणा करनी चाहिए

      मादि सहित मन की एकाग्रता को धारणा कहा जाता है

      स्थान - पैर का अंगूठा, गुल्फ, जंघा का मध्य भाग, ऊरु का मध्य भाग, गुदा का मध्य भाग, हृदय, उपस्थ

o  दे का मध्य भाग, नाभि, गला, कोघ्नी मध्य, तालु मूल, नासिका मूल, नेत्र, भ्रूमध्य, ललाट, मस्तिष्क का मूल भाग, जानु, हाथों का मूल भाग

      शरीर में 5 भूतों का स्थान और उनकी विशेषता (1 घडी = 24 mins)

पृथ्वी स्थान

पैरों से घुटने तक - पीत वर्ण

4 गुणों से युक्त - चतुष्कोण

5 घड़ी पर्यंत ध्यान करना चाहिए (5x24 min)

जल स्थान

घुटने से कटी (कमर) - श्वेत वर्ण

अर्धचंद्राकार

10 घंटिका (10x24) का पर्यंत

अग्नि स्थान

कटी प्रदेश से शरीर मध्य - सिंदूर वर्ण

15 घंटिका (15x24)

वायु स्थान

नाभि से नासिका - धूम्रवर्ण

20 घंटिका

आकाश स्थान

नासिका से ब्रह्मानंद - नीला

 

      शरीर के 5 अवस्थाएं

जागृत अवस्था

नाभि से हृदय पर्यन्द

स्वप्ना अवस्था

कंठ अवस्था

सुषुप्ति

तालु मध्य

तुरीय

भ्रूमध्य

तुरियातीत

ब्रह्मरन्ध्र

 

o  इन 5 अवस्थाओं में अलग-अलग स्थानों पर आत्मा की अवस्थिति रहती है

      समाधि

o  जीवात्मा और परमात्मा के स्वरूप का ज्ञान होने पर हमेव परब्रह्मा स्थिति का आ जाना समाधि कहलाती है

o  ऐसी स्थिति में सारी वृत्तिया नष्ट हो जाती है, ब्रह्म रूप हो जाता है

o  संपूर्ण संसार स्वप्नवत् दिखाई देता है

o  निर्वाण पद का आश्रय लेकर कैवल्य को प्राप्त कर लेता है