वसिष्ठ
संहिता
अध्याय 6
इसमें
वशिष्ठ और उनके
पुत्र शक्ति
का संवाद है।
प्रथम
अध्याय
(84 श्लोक)
गुरु
वशिष्ठ की
विशेषताएं - त्रिकालज्ञ,
श्रेष्ठ, शांत,
ब्रह्मज्ञ, जितेंद्रिय
इत्यादि
गुणों से
युक्त वशिष्ठ को
प्रणाम करके
पुत्र शक्ति
ने प्रश्न
पूछा।
प्रश्न
मैं किस
प्रकार ज्ञान
प्राप्त करके
इस दुखपूर्ण संसार
से मुक्त हो
जाऊंगा?
वसिष्ठ
- मेरे
मन में भी इस
प्रकार का
प्रश्न
उत्पन्न हुआ
था जिस के
निराकरण के
लिए मैंने ब्रह्मा
के पास जाकर स्तुति
और प्रार्थना
की और पूछा,
मैं उस अंतिम परम
पद को कैसे
प्राप्त करूँ?
o ब्रह्मा
के मुख से जीव
मात्र के लिए
वेदों के
द्वारा बताए
गए 2 मार्ग
हैं
प्रवर्तक
मार्ग (प्रवृत्ति)
निवर्तक
मार्ग (निवृत्ति)
प्रवर्तक
मार्ग - वर्ण
और आश्रम की
व्यवस्था के
अनुसार संसार
में
कामसंकल्प
पूर्वक किए गए
कर्म
प्रवर्तक कर्म
कहलाते हैं।
o कामसंकल्प
पूर्वक (इच्छा
पूर्वक)
निवर्तक
मार्ग - सभी
कामनाओं से
रहित होकर ज्ञानपूर्वक
कर्म का
अनुष्ठान
करना जो कि
जन्म के चक्र
से मुक्ति
दिलाने वाला
है।
o निवर्तक
कर्म दो
प्रकार का
बताया है।
बाह्य
अभ्यंतर
o बाह्य
कर्म -
वेद के द्वारा
विहित साधनों के
द्वारा की गई
बाह्य
क्रियाएं।
o अभ्यंतर
कर्म -
आत्मा में
बुद्धि
द्वारा वेद विहित
कर्मों का
अनुष्ठान।
दोनों
के द्वारा ही
मोक्ष की
प्राप्ति
होती है, और इन
दोनों में
अभ्यंतर कर्म
को
विधिपूर्वक नित्य
करना चाहिए।
शक्ति
- ज्ञान
का स्वरूप
क्या है?
वशिष्ठ -
ज्ञान
योगस्वरूप है।
(ज्ञानं
योगात्मकम्)
और योग आत्मा
में स्थित है
या योग आत्मा
की ओर ले जाने
वाला है।
o योग के 8 अंग
है इसे ही सर्वधर्म
कहते हैं।
o अष्टांग
योग
बहिरङ्ग
योग
यम
नियम
आसन
प्राणायाम
अन्तरङ्ग
योग
प्रत्याहार
धारणा
ध्यान
समाधि
अष्टांग
के प्रकार
अङ्ग |
प्रकार |
यम |
10 |
नियम |
10 |
आसन |
10 (जिनमें 4
उत्तम है) |
प्राणायाम |
3 |
प्रत्याहार |
4 |
धारणा |
5 |
ध्यान |
6 |
समाधि
(समता) |
1 |
यम |
|
1. अहिंसा |
मन, कर्म, और
वाणी से
हमेशा जीव
मात्र को
पीड़ा न देना। शास्त्रोक्त
हिंसा भी
हिंसा है। |
2. सत्य |
प्राणियों
के हित के लिए
न्याय
अनहसार
प्रिय और
यथार्थ
बोलना। |
3. अस्तेय |
मन, क्रिया और
वाणी से सभी
पदार्थों
में निस्पृह (इच्छा
ना होना) होना। |
4. ब्रह्मचर्य |
सभी
प्राणियों
में मन,
क्रिया और
वाणी से मैथुन
का त्याग कर
देना। गृहस्थियों के
लिए ऋतुकाल
के बाद
शास्त्रानुसार
अपनी
पत्नियों से समागम
करना। गुरु सेवा
में निरंतर
लगे रहना |
5. धृति |
अर्थ की हानि,
बंधु का वियोग
या वैभव के
नष्ट और
प्राप्त
होने पर सभी स्थितियों
में चित्त का
स्थिर होना। |
6. क्षमा |
प्रिय, अप्रिय,
सभी जीवों
में समत्व का
भाव रखना |
7. दया |
दूसरों के
प्रति बंधु,
मित्र और
शत्रु के
प्रति भी
सदैव कृपा
बुद्धि रखना |
8. आर्जव |
विहित
कर्मों में
प्रवृत्ति, और उनसे
अन्य में
निवृत्ति, इन दोनों
स्थितियों
में मन,
वाणी और
क्रिया का एक
रूप बने रहना है। |
9. मिताहार |
मुनि के
द्वारा 8
ग्रास, वानप्रस्थियों
के द्वारा 16
ग्रास,
गृहस्तियों के
द्वारा 32
ग्रास, और
ब्रह्मचारियों
के द्वारा
यथेष्ट
ग्रास अन्य
व्यक्तियों
को अपने
पूर्ण आहार
से कम भोजन
करना चाहिए |
10. शौच |
बाह्य मिट्टी, जल
से शुद्ध आभ्यंतर अध्यात्म
विद्या
द्वारा मन की
शुद्धि |
नियम |
|
1. तप |
कठोर चांद्रायण
व्रत
इत्यादि के
द्वारा शरीर
का शोधन |
2. संतोष |
इच्छा के
अनुरूप (यदृच्छा/अनायास)
फल प्राप्त
होने पर मनका
संतुष्ट
रहना संतोष
है |
3. आस्तिकता |
धर्म और
अधर्म में
विश्वास |
4. दान |
न्याय युक्त
कार्यों से
प्राप्त
वस्तुओं का
श्रद्धा
युक्त
व्यक्ति को
देना |
5. ईश्वर पूजन |
प्रसन्न
चित्त होकर
भक्ति
पूर्वक
विष्णु की पूजा
करना। हृदय का राग
रहित होना, वाणी का
असत्य
इत्यादि से
रहित होना, शरीर का
हिंसा
इत्यादि से
रहित होना |
6. सिद्धान्द
श्रवण |
वेदांत के
चिंतन को
सिद्धांत
श्रवण कहते
है। अपनी अपनी
शाखाओं का
अध्ययन इतिहास और
पुराण
ग्रंथों का
अध्ययन |
7. ह्री (लज्जा) |
वेद और लोक
में जो निंदित
कर्म है
उसमें लज्जा
का भाव रखना। |
8. मति |
शास्त्र
विहित
कर्मों में
श्रद्धा और गुरु
उपदिष्ट
कर्म से
अतिरिक्त
कर्म का
त्याग करना |
9. जप |
शास्त्रोक्त
विधि से
मंत्र का
अभ्यास करना
उच्च
जप - उपांशु जप -
मानस जप उच्च जबसे 1000x उपांशु उपांशु से 1000x अच्छा
मानस जप है |
10. व्रत |
गुरु के
द्वारा उपदिष्ट
उपतेश और
आज्ञानुसार धर्म,
अर्थ, काम, और
मोक्ष के लिए
प्रयत्न करना |
आसन
1.
स्वास्तिकासन
- सभी पापों का
नाश
2.
गोमुखासन
3.
पद्मासन
(बद्ध
पद्मासन)
4.
वीरासन
5.
सिंहासन
- नासग्र
दृष्टि
6.
मयूरासन
- सभी पापों का
नाश
7.
कुक्कुटासन
8.
भद्रासन
- सभी
व्याधियों का
नाश
9.
कूर्मासन
10. मुक्तसन
o यम, नियम,
और आसन का
अभ्यास करने
के बाद नाड़ी
शुद्धि और फिर
प्राणायाम का
अभ्यास करना
चाहिए
द्वितीय
अध्याय
(69 श्लोक)
शक्ति - नाड़ी
शुद्धि कैसे
होगी?
प्रक्रिया
बताएं? नाड़ी की
उत्पत्ति की
विधि क्या है? कंद क्या है?
कितने वायु
हैं? उनके
स्थान और अलग
कार्य बताएं?
वशिष्ठ
- शरीर
का परिमाण 96
अंगुल है।
शरीर के दोनों
पार्श्वों
में 32-32
हड्डियां है,
और संपूर्ण
शरीर में 72000
नाडिया है।
प्राण की गति
शरीर से 12
अंगुल तक है।
शरीर
के मध्य में
एक ज्योर्तिमय
स्थान है, जो मनुष्य
में त्रिकोणत्मक,
पशुओं में चौकार
और पक्षियों
में गोलाकार
हैं।
गुदा
से 2 अंगुल
ऊपर, लिंग से 2
अंगुल नीचे 1
अंगुल स्थान (योनिस्थान)
को शरीर मध्य
कहा गया है।
शरीर/देह मध्य
से 9 अंगुल
ऊपर कंद का
स्थान है, जो 4
अंगुल ऊंचा और
4 अंगुल फैला
हुआ है, उस कंद
के मध्य भाग
को नाभि कहते
हैं। वहां से
चक्रों का
प्रादुर्भाव
होता है। वह
चक्र 12 अरों
से युक्त हैं।
उनके कारण
ही शरीर की
स्थिति
विद्यमान हैं।
इसी चक्र के
अंदर पुण्य और
पाप से
प्रेरित होकर
जीव भ्रमण
करता है।
उस
चक्र के ऊपर
कुंडलनी की
स्थान है।
कुंडलिनी
की विशेषताएं
-
o 8 प्रकृति/स्वभाव
वाली।
o आकार
से लेकर क्षकार
पर्यंत बीज
वाली।
o 8
बार
कुंडलीकृत है,
जिसे वह्नियोग
के द्वारा (अपान
की सहायता से)
जागृत किया जा
सकता है
नाडिया - कंद के
मध्य में
स्थित नाड़ी
को सुषुम्ना
कहा जाता है,
सभी नाडियों
की स्थिति उसी
के चारों तरफ
रहती है। मुख्य
नाडियों की
संख्या 14 है।
सुषुम्ना
|
काल का
भक्षण करने
वाली |
इडा |
तामस कहा
गया है Left |
पिंगला |
राजस Right |
सरस्वती |
सुषुम्ना
के पार्श्व
मे स्थित |
कुहू |
सुषुम्ना
के पार्श्व
मे स्थित |
वरणा |
यशस्विनी
और कुहु के
बीच में |
यशस्विनी |
पिङ्गला
के पीछे |
पूषा |
पिङ्गला
के आगे |
पयस्विनी |
पूषा और
सरस्वती के
बीच |
शंखिनी |
गांधारी
और सरस्वती
के बीच |
गांधारी |
इडा के
पीछे
गान्धारी |
हस्तिजिह्वा |
|
विश्वोदरा |
कुहू और
हस्तिजिह्वा
के बीच में |
अलंबूसा |
कन्द के
नीचे |
इनमें
3 मुख्य है इडा,
पिङ्गला, सुषुम्ना
o 3
में 1 मुख्य - सुषुम्ना
o सुषुम्ना - वह कंद के
मध्य से रीढ़
की हड्डी के
साथ-साथ
मूर्धा तक
स्थित है। इसे
सूक्ष्मा, अव्यक्ता
और वैष्णवी
भी कहा गया है।
दिन
और रात की
अवस्थिति इड़ा
और पिंगड़ा
के कारण है।
उस काल
(मृत्यु) का
भक्षण करने
वाली सुषुम्ना
है।
पूषा |
वाम
नेत्र तक |
पयस्विनी |
दक्षिण
कर्ण |
सरस्वती |
जिह्वा |
हस्तिजिह्वा |
वाम पाद
का अंगूठा |
विश्वोदरा |
शरीर के
वाम भाग मे
फैली हुई |
अलंबूसा |
गुदा मूल |
शंखिणी |
दक्षिण
कान |
गांधारी |
दक्षिण
चक्षु |
कुहु |
लिङ्ग |
वरणा |
शरीर के दक्षिण
भाग मे फैली
हुई |
यशस्विनी |
दक्षिण
पैर का
अंगूठा |
प्राण
10 प्रकार के
होते हैं (त्रिशिखि
ब्राह्मणोपनिषत्
से कुछ मुलता
है)
प्राण |
स्थान |
कार्य |
प्राण |
मुख,
नासिका, हृदय,
नाभि, कभी कभी
पैर के
अंगूठे तक भी |
श्वास,
प्रश्वास,
काल |
अपान |
लिङ्ग,
गुदा, उरु,
जंघा, जानु,
पेट, कटि और
नाभि मूल |
मल-मूत्र
विसर्जन |
व्यान |
कान और
आंख के मध्य
में, ग्रीवास्थि
में (भृकाटी), दोनों
टखनों (ankle) में, गले
में, आँख में |
कर्म की
प्रवृत्ति |
उदान |
सभी
संधिया, हाथ
और पैरों मे |
शरीर का
उत्थान |
समान |
शरीर को
व्यवस्थि
रूप से
व्याप्त
करके बहता है
(नाभि) |
अन्न रस
का पाचन संपूर्ण
शरीर का पोषण |
नाग |
उद्गार |
|
कूर्म |
निमिलन |
|
कृकर |
क्षुधा |
|
देवदत्त |
तन्द्रा |
|
धनंजय |
शोषण |
|
इन
सब चीजों को
अच्छे प्रकार
जानकर विधि
पूर्वक नाड़ी
शोधन करना
चाहिए।
नाड़ी
शोधन से पूर्व
की स्थिति -
सभी
कामनाओं से
रहित होकर
शास्त्र कर्म
करते हुए फल,
मूल, और जल से
भरे तपोवन में
या देवालय में
सुंदर मठ
बनाकर, तीनों
समय स्नान
करते हुए, कुश
या मृग चर्म
का आसन बनाकर
गणेश (विनायक)
की पूजा कर, पूर्व
या उत्तर की
ओर मुख करके पद्मासन
लगाकर बैठे।
नाड़ीशोधन
o इडा से
पूरक 12
मात्रा बीज वं
o पिंगला से
रेचक
बीज रं
o पुनः पिंगला
से पूरक और इडा
से रेचक
प्रतिदिन
तीनों समय 36
बार करना है।
इस प्रक्रिया
का 3-4 महीने या 3-4
वर्ष तक करना
चाहिए।
नाड़ी
शुद्ध के
लक्षण -
o शरीर लाघव
o दीप्ति/कांति
o जठराग्नि
प्रदीप्त
o नाद की
अभिव्यक्ति
तीसरा
अध्याय
(75 श्लोक)
प्राणायाम
- प्राण
और अपान का
समायोग
प्राणायाम है।
इसके 3
प्रकार हैं ।
o रेचक,
पूरक, कुंभक ओंकार के
तीन वर्णों से
युक्त है।
अ - सृजन
करने वाला - उत्पत्ति
उ - धारण
करने वाला - स्थिति
म् - संहार
करने वाला - संहार
|
अ |
उ |
म् |
वर्ण |
रक्त |
शुक्ल |
शुक्ल |
वाहन |
हंस |
गरुड |
वृषभ (बैल) |
|
गायत्री
भी कहते है |
चक्रधारी
देवता
(विष्णु) |
सरस्वती,
माहेश्वरी
और पश्चिमा
नाम से भी कहते
है। |
प्राणायाम
स्वरूप
इडा
से पूरक |
मात्रा
16 |
बीज
अकार |
कुंभक |
मात्रा
64 |
बीज
उकार |
पिंगला
से रेचन |
मात्रा
32 |
बीज -
मकार |
फिर
पिंगला से
पूरक |
मात्रा
16 |
बीज
अकार |
कुंभक |
मात्रा
64 |
बीज
उकार |
इडा
से रेचक |
मात्रा
32 |
बीज -
मकार |
इस
प्रकार
प्रतिदिन 16
प्राणायाम
करना चाहिए।
लाभ - 1
महीने के
अभ्यास से भ्रूण
हत्या जैसे
पाप से मुक्त
हो जाते हैं।
प्राणायाम
की अवस्थाएं
o अधम -
स्वेद
o मध्यम - कंपन
o उत्तम - भूमित्याग
इस प्रकार
प्राणायाम का
अभ्यास करते
रहने से जिस
साधक के श्वास
और प्रश्वास
शांत हो जाते
हैं, वह केवल
कुंभक करने
में समर्थ हो
जाता है।
केवल
कुंभक के लाभ
o तीनों
लोकों में कुछ
भी दुर्लभ
नहीं रहता।
o मनोजविद्
- मन अत्यधिक वेगशाली/बलशाली
होता है।
o वलित-पलित
रोगों का नाश
हो जाता है।
योगी इंद्रियों
को विषयों से
खींचकर और अपान
वायु को ऊपर
की ओर खींचकर वह्नि
मंडल में रोक
देता है, फिर षण्मुखी
मुद्रा करें,
जिससे स्फटिक
मणि के समान
स्वच्छ नाद
का
प्रादुर्भाव
होगा।
नाद
की ध्वनिया
o आदि ध्वनि - शंख
ध्वनि
o मध्यम
ध्वनि
मेघ ध्वनि
o अन्त
ध्वनि
झर्झर ध्वनि
(गिरि प्रसवण)
प्रत्याहार
o विषयों
में
स्वाभाविक
रूप से विचरण
करती हुई इंद्रियों
को बलपूर्वक
हटा लेना
प्रत्याहार
है।
o इंद्रियों
से जिन जिन
विषयों को
जानता है,
उन्हें आत्मवत्
समझना
प्रत्याहार
है।
o जो नित्य
विहित कर्म है,
उनका बाह्य साधनों
के बिना केवल
मन से ही
आत्मा में
अनुष्ठान करना।
o 18
मर्म स्थानों
में वायु को
स्थिर करना
और उनको रीति
पूर्वक वहाँ
से खींच लेना।
पैर के
अंगूठे, 2 टखने (ankles) |
41/2 अंगुल परिमाण |
2 जंघाओं
का मध्य
स्थान |
21/2 अंगुल |
2 चिति
(घुटने के
नीचे का भाग) |
11 अंगुल |
2 घुटने |
21/2 अंगुल |
ऊरु का
मध्य स्थान |
9 अंगुल |
गुदामूल |
9 अंगुल |
देह मध्य
(योनि) |
21/2 अंगुल |
लिङ्ग |
21/2 अंगुल |
नाभि |
101/2 अंगुल |
हृदय |
6 अंगुल |
कण्ठकूप |
6 अंगुल |
तालुमूल |
4 अंगुल |
नासिकामूल |
4 अंगुल |
आंखों का
मध्य बिन्दु |
1/2 अंगुल |
भ्रूमध्य |
1/2 अंगुल |
मस्तिष्क |
3 अंगुल |
मूर्धा |
3 अंगुल |
चतुर्थ अध्याय
(73
श्लोक)
धारणा
o योग
शास्त्र के
जानने वाले
योगी के
द्वारा, यम
इत्यादि
गुणों से
युक्त अपने मन
में स्थिरता
को धारण करना
धारणा कहलाता
है।
o हृदय में
या अंतराकाश
में बाह्याकाश
का चिंतन करना
धारणा है।
o 5
तत्वों में 5 बीजों
का चिंतन करना
धारणा कहलाता
है। (घेरण्ड
संहिता)
o 5
भूतों में 5
देवताओं का
चिंतन करना
धारणा है।
5 महाभूत
और उनके बीज
भूत |
स्थान |
बीज |
देवता |
फल |
पृथ्वी |
पैर से
जानु |
ल |
ब्रह्मा |
पृथ्वी
तत्व पर विजय |
जल |
घुटने से
गुदा |
व |
विष्णु |
सभी
रोगों का नाश |
अग्नि |
पायु से
हृदय |
र |
रुद्र |
अग्नि
तत्व का विजय |
वायु |
हृदय से
भ्रूमध्य |
य |
महतत्त्व |
आकाश गमन |
आकाश |
भ्रूमध्य
से
मूर्धान्त |
ह |
अव्यक्त
परमात्मा |
जीवन
मुक्त व
मल-मूत्र कम
होना तथा सभी
दुःख नाश |
ध्यान
-
प्राणियों के बंधन
और मोक्ष का
कारण ध्यान है।
आत्म
स्वरूप का मन
से चिंतन करना
ध्यान है।
ध्यान के 2
प्रकार है
o निर्गुण
o सगुण
निर्गुण ज्योतिर्मय,
विराट
इत्यादि
गुणों से
युक्त ब्रह्म
के समान मै
बनूँ, ऐसा
अनुभव करना
निर्गुण जान
है।
सगुण - शरीर की
अनेक
विशेषताओं से
युक्त वह
ईश्वर सब
प्राणियों के
हृदय में
स्थित है और वह
मैं ही हूं,
ऐसा अनुभव
करना सगुण
ध्यान है।
o सगुण
ध्यान के 5
प्रकार।
अनेक
विशेषताओं से
युक्त वह
अग्निदेव मैं
ही हूं ऐसा
ध्यान करना।
भ्रूमध्य
में अनेक
विशेषताओं से
युक्त आत्मा
की मन से
कल्पना करना।
सोम मंडल में
अनेक
विशेषताओं से
युक्त अव्यय,
परमात्मा,
अविनाशी मैं
ही हूं ऐसा
ध्यान करना।
लोक
साक्षी भाव से
संपूर्ण जगत
को प्रकाशित करने
वाले ब्रह्म
को मन में देख
कर मैं
वही हूं ऐसा
अनुभव करना।
समाधि
-
o जीवात्मा और परमात्मा
की एकता समाधि
है।
o सत्य, ज्ञान
इत्यादि
गुणों से
युक्त
निर्गुण
ब्रह्म का आत्मा
में चिंतन
करना।
o हृदय कमल
के अंदर
शरीरधारी
वासुदेव
परमात्मा का
ध्यान करना।
o हृदय कमल
के मध्य में
स्थित
शिखास्वरूप ज्योतिर्मय
ईश्वर का ध्यान।
o हृदयरूपी
कमल में अमृत
से प्लावित (चारों
तरफ से डूबा
हुआ) आत्मा का
पुरुष रूप में
ध्यान।
o भ्रू मध्य
में स्वर्ण के
समान पीत
वर्ण वाले
ईश्वर का
आत्मा में
ध्यान।
o सूर्यमंडल
स्वरूप
स्वर्ण शरीर
वाले हरि का आत्मा
में ध्यान।
इन सबके
करने से समाधि
की प्राप्ति
होती है
अध्याय 5 (श्लोक 55)
शक्ति
o जन्म मरण
किसका होता है?
o मरने के
पश्चात् वह
कहां रहता है?
o उसका नाश
काल का ज्ञान
कैसे होता है?
वशिष्ठ -
आत्मा को शरीर
से युक्त होने
पर जीव नाम से
कहा जाता है।
o जन्म मरण
। इसी (जीव) का
होता है।
o जब वह इस
क्षेत्र (शरीर)
को जान लेता
है उसे क्षेत्रज्ञ
कहा जाता है।
वस्तु
के 5 प्रकार
(जीव के
दृष्टि से)
1.
भोक्ता
2.
भोग्य
3.
भोग
4.
भोगायतन
(शरीर)
5.
इन्द्रिय
जीव
की 4 अवस्थाएं
1.
जाग्रत
2.
स्वप्न
3.
सुषुप्ति
4.
तुरी
सुषुप्ति
- आत्मा
का अपने स्वरूप
में क्रिया
रहित होना।
तुरीय
- आत्मा
का संसारभाव
से मुक्त होना।
शरीर
के नष्ट होने
पर जीव लिङ्ग
शरीर के साथ
तेज रूप में
वास करता है।
इस प्रकार
जब तक कर्म का
पूर्णतः क्षय
नहीं हो जाता
है, तब तक जीव
जन्म-मृत्यु
के चक्र में
घूमता रहता
कर्म
का क्षय होने
से
आत्मशुद्धि
और
आत्मशुद्धि
से आत्मा (स्वयं
का) ज्ञान
होता है।
मुक्ति
का उपाय - ध्यान
योग
श्रेष्ठता
क्रम प्राणियॉ
देहधारी
बुद्धिजीवी
मनुष्य
ब्राम्हण
विद्वान कृतबुद्धि
कर्ता
(भाव) ब्रह्मवित्
कृतबुद्धि
- संसार
के करने योग्य
कर्म से जो हट
गया है।
कर्ता
- ईश्वर
को प्राप्त
करने वाले
कर्म।
काल
की गणना (1 घडी = 24 mins)
60 श्वास |
1 प्राण |
6 प्राण |
1 घडी (नाडी) |
5 घडी |
1 राशि |
12 राशि |
1 दिन |
30 दिन |
1 मास |
2 मास |
1 ऋतु |
3 ऋतुओं |
1 अयन |
6 ऋतुओं |
1 वर्ष |
100 वर्ष |
1 आयु |
ग्रहों
के साथ 12
राशियों वाला श्वास
प्रतिदिन
चलता है।
o 5 नाडियों
का 1 राशि
o 12 राशि.. मेष.
वृष..
o 12 राशियॉ 3
स्वरूप वाली
है।
चल
(चर) - 4
अचल (अचर) - 4
उभय स्थिर (चर एवं
अचर) - 4
1
राशि
के अंदर 5 महाभूत
होते हैं, जो 5
नाडियों से
जुड़े होते
हैं।
5 तत्व
और ग्रह
तत्त्व |
ग्रह |
वायु |
गुरु,
राहु |
अग्नि |
शुक्र,
मंगल |
भुमि
(पृथ्वी) |
बुध, रवि |
जल |
चंद्रमा,
शनि |
आकाश |
|
राहु,
मंगल, रवि और
शनि - नासिका
के दाहिने भाग
से शुभ कारक होते
हैं
गुरु,
बुध, शुक्र और
चंद्रमा - नासिका के
बाएं भाग से
शुभ कारक होते
हैं
भोजन,
मैथुन, युद्ध
और धन संग्रह - वायु के
दाहिने भाग से
चलते समय करें
यात्रा,
विवाह कर्म,
अन्य शुभकर्म
भी -
चंद्र स्वर से
वायु चल रही
हो तब करें।
पृथ्वी,
जल तत्व के
रहने पर तब
गमन सुखकारक
होगा (बाए भाग
में)
दिन
का 12 राशियों
में विभाजन और
उनमें प्राप्त
फल
दिन की
आधी राशि में
वायु के अनियमित
चलने पर |
चित्त
विक्षेप |
द्वित्तीय
राशि में
अनियमित
चलने पर |
तत्काल धनहानि
और दुख |
तीसरी
राशि में |
यात्रा
दुःखदायक |
चौथी
राशि में |
धन नाश |
5वीं राशि
में |
स्थान
भ्रम |
6वीं राशि
में |
प्रत्यवाय-पाप
(कठिनाई) |
7वीं राशि
में |
रोग |
8वीं राशि
में |
मृत्यु |
9वीं राशि
में |
बुद्धि
नाश |
10वीं राशि
में |
शारीरिक
कष्ट |
11वीं राशि
में |
मित्र
नाश |
12वीं राशि
में |
सभी काम
बिगड जाते है |
अध्याय 6 (61 श्लोक)
शक्ति
- काल
को जानने वाला
योगी किस उपाय
से मृत्यु से
छुटकारा पा
सकता है?
वसिष्ठ - बाह्य और अभ्यंतर
लक्षणों से
मृत्यु को
निश्चित रूप
से जानकर उससे
निर्भय और
प्रसन्न होकर
शास्त्रोक्त
विधि से तारक (ओंकार)
के द्वारा जप
करें या तारक
ब्रह्म का जप
करें।
सृष्टि के
प्रारंभ में
एक मात्र ही (सत्)
था। वही जन्म
इत्यादि का
कारण था। उसी
से 4 वर्ण
वाले ओंकार
बीज का
निर्माण हुआ।
4 वर्ण - अकार,
उकार, मकार, अर्धमात्रा
ओंकार
का वाच्य रुद्र
है।
ओंकार
की विशेषताएं
o कृष्णपिंगल
(पीत आवृत्त
नीला)
o अमृतस्वरूप
o मस्तक में
स्थित
(मूर्धा)
जो योगी
वाणी से प्रणव
का उच्चारण
करते हुए शरीर
त्याग करता है
वह ब्रह्म हो
जाता है।
इसमें
गायत्री
मंत्र एवं
महामृत्युंजय
मंत्र की प्रशंसा
की गई है।
जो सब
प्राणियों
में स्वयं को
और स्वयं में
सब प्राणियों
को देखता है
वह
आत्मज्ञानी
कहलाता है।
समाधि
- सब
संकल्प रहित शून्य
अवस्था को
समाधि कहते
हैं।