सिद्धसिद्धान्द
पद्धति
ग्रन्थ
के प्रारम्भ
में आदिनाथ
भगवान् को
नमस्कार किया
गया है।
सिद्ध
जनों के
अनुसार अंड
और पिण्ड की
उत्पत्ति
नहीं होती है
अर्थात् ये
नित्य है।
परन्तु
लोक व्यवहार
को दृष्टि में
रखकर इनकी
उत्पत्ति की
चर्चा की गयी
है।
इस
ग्रन्ध को 6
भागों में
विभाजीत कीया
गया है
1. पिण्ड की
उत्पत्ति
2. पिण्ड
विचार
3. पिण्ड
संवित्ति
4. पिण्ड
आधार
5. पिण्डपदरससमभाव
6. श्रीनित्यावधूत
पिण्डोत्पत्ति
सृष्टि
के प्रारम्भ
में न तो कर्ता
था और न ही कुल
और अकुल रूपी
कारण शक्ति
थी।
केवल
अव्यक्त परब्रह्म
अनामा रूप
में विद्यमान
था।
परब्रह्म
आदि और अंत से
रहित है।
अनामा
परब्रह्म की इच्छामात्र
रूप वाली धर्म
और
अधर्म वाली
निजा शक्ति
है।
इसी
निजा शक्ति से
आगे सृष्टि की
उत्पत्ति का क्रम
और उनकी
शक्तियों का
विवरण चित्र
में प्रस्तुत
किया गया है।
पिण्डोत्पत्ति |
पर पिण्ड |
|||||
मूल शक्ति |
निजा
शक्ति |
परा
शक्ति |
अपरा
शक्ति |
सूक्ष्म
शक्ति |
कुण्डलिनी
शक्ति |
|
उत्पन्न
शक्ति |
परा शक्ति |
अपरा शक्ति |
सूक्ष्मा |
कुण्डलिनी |
- |
|
उत्पत्ति
की कारण |
उन्मुखता |
स्पंद |
अहन्ता |
- |
- |
|
मूल शक्ति के
5 गुण |
नित्यता निरञ्जनता निष्पन्दता निराभासता निरुत्थानता |
अस्तिता अप्रमेयता अभिन्नता अनन्तता अव्यक्तता |
स्फुरता स्फुटता स्फारता स्फोटता स्फूर्तिता |
निरंशता निरंतरता निश्चलता निश्चयता निर्विकल्पता |
पर्णता प्रतिबिम्बता प्रबलता प्रोच्चलता प्रत्यंगमुखता |
|
इन 5
शक्तियों और
इनके गुणों
से मिलकर पर
पिण्ड की
उत्पत्ति
हुई। जो शिव
के रूप में
जाना जाता
है।
आगे
इन शक्तियों
के अधिष्ठातृ
देव और उनके
गुणों के
बारे चर्चा
करेंगे। |
मूल
शक्ति के अधिष्ठातृ
देवों के
विशेष गुण |
अनादि
पिण्ड |
|||||
शक्ति |
निजा |
परा |
अपरा |
सूक्ष्म |
कुण्डलिनी |
|
अधिष्ठातृ
देवता |
अपरम्परम |
परमपद |
शून्य |
निरञ्जन |
परमात्मा |
|
कार्य |
स्फुरतामात्र |
भावनामात्र |
सत्ता |
साक्षात्कार |
परमात्मा |
|
अधिष्ठातृ
देवों के
विशेष गुण |
अकलंक अनुपमा अपार अमूर्त अनुदय |
निष्कल अणुतर अचल असंख्य अनाधार |
लीनता पूर्णता उन्मनी लोलता मूर्च्छा |
सत्य सहज समरस सावधान सर्वगत |
अक्षय अभेद्य अच्छेद्य अविनाशी अदाह्य |
|
इन अधिष्ठातृ
देव और उनकी शक्तियों
से मिलकर अनादि
पिण्ड की
उत्पत्ति
हुई।
अनादि
पिण्ड से
उत्पन्न
होने वाले
क्रम की आगे
चर्चा की गई
है। |
मूल पिण्ड |
अनादि |
परमानन्द |
प्रबोध |
चिदुदय |
प्रकाश |
आद्य
पिण्ड |
उत्पन्न
पिण्ड |
परमानन्द |
प्रबोध |
चिदुदय |
चित् प्रकाश |
सोऽहम्भाव |
|
उत्पन्न पिण्ड
के 5 गुण |
स्पन्द हर्ष उत्साह निष्पन्द नित्यसुख |
उदय उल्लास अवभास विकास प्रभा |
सद्भाव विचार कर्तृत्त्व ज्ञातृत्व स्वतन्त्रता |
निर्विकार निष्कल निर्विकल्प समता विश्रान्ति |
अहन्ता अखण्ड
ऐश्वर्य स्वात्मता विश्व
अनुभव
सामर्थ्य सर्वज्ञता |
|
इन पाँचों पिण्ड
और इनके गुणों
से मिलकर आद्य
पिण्ड की
उत्पत्ति
हुई।
आगे आद्य
पिण्ड से
महाभूतों की
उत्पत्ति
बताई गयी है। |
आद्य
पिण्ड से
उत्पन्न 5
भूतों के शरीर
में गुण |
महासाकार
पिण्ड |
|||||
मूल
पिण्ड |
आद्य |
महाकाश |
महावायु |
महातेज |
महासलिल |
|
उत्पन्न
महाभूत |
महाकाश |
महावायु |
महातेज |
महासलिल |
महापृथ्वी |
|
उत्पन्न
महाभूतों के 5
गुण |
अवकाश अच्छिद्र अस्पृश्य नील
वर्ण शब्द
वर्ण |
संचार संचालन स्पर्शन शोषण धूम्र
वर्ण (धुंआ) |
दाहक पाचक उष्णता प्रकाश रक्त
वर्ण |
महाप्रवाह आप्यायन
(बढना) द्रव रस श्वेत
वर्ण |
स्थूलता अनेक
आकार काठिन्य गन्ध पीत वर्ण |
|
इन 5
महाभूतों और
उनके गुणों
को मिलाकर महासाकार
पिण्ड कहते
है। नीचे
महासाकार
पिण्ड को ही
यहाँ शिव कहा
गया है।
महासाकार
पिण्डकी 8
मूर्तियों
का उल्लेक कर
रहे है। |
महासाकार
पिण्ड की 8
मूर्तियॉ |
||
1. शिव |
भैरव |
फिर ब्रह्मा
के देखने
मात्र से नर
नारी रूप
प्रकृति
पिण्ड (शरीर)
उत्पन्न
हुआ। अब उस शरीर
में 5 भूतों के 5-5
गुण दिखा रहे
है। |
2. भैरव |
श्रीकण्ठ |
|
3. श्रीकण्ठ |
सदाशिव |
|
4. सदाशिव |
ईश्वर |
|
5. ईश्वर |
रुद्र |
|
6. रुद्र |
विष्णु |
|
7. विष्णु |
ब्रह्मा |
|
8. ब्रह्मा |
नर
नारी रूप
प्रकृति पिण्ड |
5
भूतों के शरीर
में गुण |
|||||
भूत |
पृथिवी |
जल |
तेज |
वायु |
आकाश |
उन भूतों
के शरीर में
गुण |
अस्थि मांस त्वचा नाड़ी रोम |
लार मूत्र शुक्र शोणित (रक्त) स्वेद |
क्षुधा तृषा निद्रा कान्ति आलस्य |
धावन भ्रमण प्रसारण आकुञ्चन निरोध |
राग द्वेष भय लज्जा मोह |
अब आगे 5 प्रकार
का अन्तःकरण
और उनके 5-5 गुण
बताए गए है। |
अन्तःकरण
के 5 गुण |
|||||
अन्तःकरण |
मन |
बुद्धि |
अहंकार |
चित्त |
चैतन्य |
अन्तःकरण
के पांच गुण |
संकल्प विकल्प मूर्च्छा जड़ता मनन |
विवेक वैराग्य शान्ति सन्तोष क्षमा |
अभीमान मदीय मम सुख मम दुःख मेरा यह |
मति धृति स्मृति त्याग स्वीकार |
विमर्श शीलन धैर्य चिन्तन निःस्पृहा |
कुलों
के 5 गुण |
|||||
कुल |
सत्व |
रजस् |
तमस् |
काल |
जीव |
कुलों
के 5 गुण |
दया धर्म क्रिया भक्ति श्रद्धा |
दान भोग श्रृंगार वस्तु ग्रहण स्वार्थ |
विवाद कलह शोक बन्ध/वध वंचन |
कलना कल्पना भ्रान्ति प्रमाद अनर्थ |
जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति तुरीय तुरीयातीत |
कुलों
के 5 गुण |
|||||
कुल |
सत्व |
रजस् |
तमस् |
काल |
जीव |
कुलों
के 5 गुण |
दया धर्म क्रिया भक्ति श्रद्धा |
दान भोग श्रृंगार वस्तु ग्रहण स्वार्थ |
विवाद कलह शोक बन्ध/वध वंचन |
कलना कल्पना भ्रान्ति प्रमाद अनर्थ |
जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति तुरीय तुरीयातीत |
शक्तियों
के 5 गुण |
|||||
शक्ति |
इच्छा |
क्रिया |
माया |
प्रकृति |
वाक् |
शक्तियों
के 5 गुण |
उन्माद वासना वाञ्छा चिन्ता चेष्टा |
स्मरण उद्योग कार्य निश्चय स्वकुल का आचार |
मद मात्सर्य दम्भ कृत्रिम असत्य |
आशा तृष्णा स्पृहा कांक्षा मिथ्या |
परा पश्यन्ती मध्यमा वैखरी मातृका |
5 करण और
उनके गुण |
|||||
प्रत्यक्ष
करण |
कर्म |
काम |
चन्द्र |
सूर्य |
अग्नि |
प्रत्यक्ष
करण (साधन) के
गुण |
शुभ अशुभ यश अपकीर्ति अदृष्ट फल
देने वाले |
रति प्रीति क्रीडा कामना आतुरता |
सत्रह कलाए 17 निवृत्ति |
तेरह कलाए 13
स्वप्रकाशता |
ग्यारह कलाए 11 ज्योति |
नाडी |
उनके
द्वार |
1. इडा |
नासिका |
2. पिङ्गला |
नासिका |
3. सुषुम्ना |
दण्डमार्ग
से
ब्रह्मरंध्र
पर्यन्त |
4. सरस्वती |
मुख |
5. पूषा |
चक्षु |
6. अलम्बुसा |
चक्षु |
7. गान्धारी |
कर्ण |
8. हस्तिजिह्वा |
कर्ण |
9. कुहू |
गुदा |
10. शंखिणी |
लिङ्ग |
अन्य
नाडी |
रोमकूप |
इन 10 प्राणों से नर और
नारी रूप पिण्ड की
उत्पत्ति
हुई |
||
वायु का नाम |
वायु का
स्थान |
वायु की
क्रिया |
1. प्राण |
हृदय |
श्वास
प्रश्वास |
2. अपान |
गुदा |
रेचक, पूरक,
कुम्भक |
3. समान |
नाभि |
जठराग्नि की
प्रदीप्त और
भोजन की पाचक |
4. व्यान |
सभी अङ्ग |
शोषण, वृद्धि |
5. उदान |
कण्ठ/तालु |
निगलना, वामन,
वार्त्तालाप |
6. नाग |
सभी अङ्ग |
अङ्गों का
मोचन और
संचालन |
7. कूर्म |
आँख |
शरीर का
कम्पन और
नेत्रों का
खुला व बंद
होना |
8. कृकल |
|
डकार और भूख |
9. देवदत्त |
|
जम्भाई |
10. धनञ्जय |
|
नाद प्रकट |
शरीरोत्पत्ति
क्रम |
|
समय |
शरीर की
उत्पत्ति |
1st दिन |
कलल की
उत्पत्ति |
1st सप्ताह |
कलल से बुदबुद |
1/2
महीना |
गोलाकार
पिण्ड |
1 महीना |
कठोर पिण्ड |
2 महीना |
शिर भाग |
3 महीना |
हाथ, पैर |
4 मास |
चक्षु, कान,
नासिका, सुख,
गुदा और
लिङ्ग की
उत्पत्ति |
5 मास |
पीठ और पेट की
उत्पत्ति |
6 मास |
नाखून और केश
आदि की
उत्पत्ति |
7 मास |
चेतना से
युक्त होना |
8 मास |
सभी लक्षण
पूर्ण |
9 मास |
सत्य ज्ञान
से युक्त |
10 मास |
योनि के
स्पर्श के
कारण अज्ञानी
बालक के रूप
में जन्म |
पुत्र
की उत्पत्ति वीर्य
अधिक होने पर
स्त्री
की उत्पत्ति रज अधिक
होने पर
नपुंसक
की उत्पत्ति दोनों के
समान होने पर
विकृत
संतान की
उत्पत्ति स्त्री
या पुरुष
दोनों में से
किसी एक के
व्याकुल होने
पर
शरीर
में धातुओं
के भार |
|
धातु |
शरीर
में उनका भार |
1. शुक्र |
साढ़े
तीन पल/225
ग्राम |
2. रक्त |
बीस पल/1280 ग्राम |
3. मेद |
बारह पल |
4. मज्जा |
दस पल |
5. मांस |
सौ पल |
6. पित्त |
दस पल |
7. कफ |
बीस पल |
8. वात |
बीस पल |
9. हड्डियां और
उनकी संधिया |
360 |
10. रोम छिद्र |
साढ़े
तीन करोड़ |
पिण्ड
विचार
5 करण और
उनके गुण |
|||||
चक्र का नाम |
स्थान |
आवर्त |
पीठ |
आकार
की शक्ति का
ध्यान |
फल |
1. ब्रह्म |
मूलाधार |
तीन/आकार |
काम |
अग्नि |
सभी
कामनाओं की
पूर्ति |
2. स्वाधिष्ठान |
|
|
उड्डीयान |
मूंगा
के आकार का
लिंग |
जगत का
साधक के प्रति
आकर्षण |
3. नाभि |
नाभि |
पांच/आकार
सांप की
कुण्डलि |
|
उगते
हुए करोड़ो
सूर्य के
सदृश ज्योति/इसे
मध्यमा
शक्ति भी
कहते है |
सब
प्रकार की सिद्धिया |
4. अनाहत/हृदय |
हृदय |
चक्र में आठ
कमल |
इस
ज्योति को
हंसकला भी
कहते है |
लिंग
के आकार की
ज्योति |
सभी
इन्द्रियॉ
वश में होना |
5. कण्ठ/चार अंगुल
विस्तार
वाला |
|
|
|
सुषुम्ना/इसे
अनाहतकला भी
कहते हैं |
अनाहत की
सिद्धि |
6. तालु/वहाँ
अमृत धारा
प्रवाह होता
है |
|
|
|
शून्य |
चित्त का
लय |
7. भूचक्र/मध्यम चक्र |
आयतन-अंगूठा
भर |
|
|
दीपक
की शिखा |
वाक्
सिद्धि |
8. ब्रह्मरन्ध्र/निर्वाण
चक्र |
|
|
जालन्धर |
धुएं
की शिखा |
मोक्ष की
प्राप्ति |
9. आकाश |
|
16 पंखुडी
वाला कमल/त्रिकू
शक्ति |
पूर्ण
गिरि |
परम
शून्य |
समस्त
इच्छाओं की
पूर्ति |
ध्यान
के 16 आधार |
|
आधार का नाम |
फल |
1. पैर का
अंगूठा |
दृष्टि
स्थिर |
2. मूल |
अग्नि
प्रदीप्त |
3. गुदा |
अपान
वायु स्थिर |
4. मेढ्र/लिंग |
वीर्य
स्थिर/वज्रोली भी
कहते है |
5. ओड्याण |
मल और
मूत्र कम |
6. नाभि |
नाद का लय |
7. हृदय |
हृदय कमल
विकसित |
8. कंठ |
इडा और
पिंगला में
वायु स्थिर |
9. घंटिका |
अमृत
बिन्दु का स्राव |
10. तालु |
काष्ठ के
समान स्थिर |
11. जिह्वा |
सभी
रोगों का नाश |
12. भ्रू मध्य |
मन को
शीतलता |
13. नासिका |
मन स्थिर |
14. नासिका के
मूल में कपाट |
6 महीने के
अन्दर प्रकाश
पुंज दिखना |
15. ललाट |
तेजस्वी
होना |
16. ब्रह्मरन्ध्र/आकाश |
आकाश के
समान पूर्ण
हो जाना |
तीन
लक्ष्य |
अन्त-र्लक्ष्य |
बहि-र्लक्ष्य |
|
मध्यम
लक्ष्य |
पांच
व्योमों
(आकाश) का
ध्यान
5 व्योम |
व्योमों
में किस
स्वरूप का
ध्यान करें |
1. आकाश |
मल
रहित निराकार
आकाश का
ध्यान |
2. पराकाश |
श्वेत
आकार के
पराकाश का
ध्यान |
3. महाकाश |
प्रलयकालीन
अग्नि के
सदृश महाकाश
का ध्यान |
4. तत्त्वाकाश |
सत
चित्त रूप
तत्त्वाकाश
का ध्यान |
5. सूर्याकाश |
करोड़ो
सूर्य के
सदृश कान्तिमय
सूर्याकाश
का ध्यान |
इस प्रकार जो
व्यक्ति 9
चक्रों, 16
आधारों, 3
लक्ष्यों और 5
आकाशों को
नहीं जानता
है वह नाम का
योगी है। |
योग के 8 अंग |
व्याख्या |
यम |
1. उपशम 2. सब
इन्द्रियों
पर जय 3. आहार 4. निद्रा 5. शीत, वात और
धूप पर विजय |
नियम |
1. मन की
वृत्तियों
पर नियंत्रण 2. एकान्तवास 3. संगति से दूर
रहना 4. उदासीनता 5. यथा प्राप्त
में सन्तुष्ट 6. वैराग्य 7. गुरु के
निर्देशों
का पालन |
आसन |
अपने स्वरूप
में स्थिति 3 आसन 1. स्वस्तिक, 2. पद्मासन, 3. सिद्धासन |
प्राणायाम |
प्राण की
स्थिरता 4
लक्षण 1. रेचक, 2. पूरक, 3. कुंभक, 4. संघट्ट (मेलन) |
प्रत्याहार |
आत्मा के
घोड़ो को
विषयों से लौटा
लेना, उनके दोषों
को मिटा देना
और उत्पन्न हो
रहे विकारों
की भी
निवृत्ति
होना। |
धारणा |
वह आत्मा
बाहर और
अन्दर एक ही
है इस स्वरूप
को अन्तःकरण
में स्थापित
करना |
ध्यान |
परम अद्वैत
भाव, चित्त में जो
कुछ भी प्रकट
होता है वह सब
आत्मा है और सब भूतों में
समान भाव
रखना |
समाधि |
अन्तःकरण
में सब
तत्त्वों की
समावस्था मन का
क्रियाओं से
रहित होना प्रयत्न
रहित स्थित
होना |
पिण्ड
संविति
पिण्ड
शरीर के मध्य
में जो चर और
अचर जगत को जानता
है वह पिण्ड संवित्ति
(पिण्ड के
रहस्य को
जानने वाला)
होता है।
विश्व का
स्वरूप
सम्पूर्ण
विश्व को शरीर
के साथ
संबंधित करके दिखाया
गया।
विश्व
के आधार कछुए
का स्थान
शरीर में पैर
के तलवे में
होता है |
|
7 पाताल |
शरीर
मे उनकी
स्थिति |
1. पाताल |
पैर का
अंगूठा |
2. तलातल |
अंगूठे
के अग्रभाग |
3. महातल |
पैर के
उपरी भाग |
4. रसातल |
टखना |
5. सुतल |
पिण्डली |
6. वितल |
घुटना |
7. अतल |
जंघा |
ये सातों
पाताल रुद्र-देवता
के अधिकार
में रहते है। वो शरीर को
अन्दर क्रोध
के रूप में
रहता है। |
21 ब्रम्हाण्ड
और उनका शरीर
में स्थान |
||
ब्रह्माण्ड |
शरीर
में उनका
स्थान |
देवता |
1. भू लोक |
गुदा |
इन्द्र |
2. भुव |
लिंग |
|
3. स्व |
नाभि |
|
4. मह |
मेरु
दण्ड मूल |
ब्रह्मा |
5. जन |
मेरु
दण्ड का
छिद्र |
|
6. तप |
मेरु
दण्ड की नाल |
|
7. सत्य |
मूलाधार
चक्र |
|
8. विष्णु |
कुक्षी
(पेट) |
|
9. रुद्र |
हृदय |
|
10. ईश्वर |
वक्ष
स्थल |
|
11. सदाशिव |
कंठ मूल |
|
12. नील कंठ |
कंठ मध्य |
|
13. शिव |
तालु
द्वार |
|
14. भैरव |
लम्बिका
मूल |
|
15. महासिद्ध |
लम्बिका
मध्य |
|
16. अनादि |
ललाट
मध्य |
|
17. कुल |
भौह |
|
18. अकुलेश |
श्ख
नाड़ी से ऊपर
नलिनी नामक
स्थान |
|
19. परब्रह्म |
ब्रह्मरन्ध्र |
|
20. परापर |
ऊर्ध्व
कमल |
|
21. शक्ति |
त्रिकूट |
|
वर्ण |
कार्य |
1. ब्राह्मण |
सदाचार |
2. क्षत्रिय |
शौर्य |
3. वैश्य |
व्यवसाय |
4. शूद्र |
सेवाभाव |
द्वीप |
शरीर
में उनका
स्थान |
1. जम्बू |
मज्जा |
2. शाक |
अस्थि |
3. सूक्ष्म |
शिरा |
4. क्रौंच |
त्वचा |
5. गोमय |
रोम |
6. श्वेत |
नख |
7. प्लक्ष |
मांस |
समुद्र |
शरीर
में उनकी
स्थिति |
1. क्षार |
मूत्र |
2. क्षीर |
लार |
3. दधि |
कफ |
4. घृत |
मेड |
5. मधु |
वसा |
6. इक्षु |
रक्त |
7. अमृत |
शुक्र |
नौ खण्ड
1.
भारत
2.
कर्पूर
3.
काश्मीर
4.
श्री
5.
शंख
6.
एकपाद
7.
गांधार
8.
कैवर्त्त
9.
महामेरु
कुल |
शरीर
में उनका
स्थान |
1. मेरु |
मेरुदण्ड |
2. कैलास |
ब्रह्म
कपाट |
3. हिमालय |
पीठ |
4. मलय |
बांया
कन्धा |
5. मंदर |
दांया
कन्धा |
6. विन्ध्य |
दांया
कान |
7. मैनाक |
बांया
कान |
8. श्री |
ललाट |
नौ
नाड़ियों में
नौ नदियों की
स्थिति
1.
पीनसा
2.
गंगा
3.
यमुना
4.
चंद्रभागा
5.
सरस्वती
6.
विपासा
7.
शतरुद्रा
8.
श्रीरात्री
9.
नर्मदा
इसी
तरह से
नाड़ियों में 27
नक्षत्र, 12
राशियों, 9
ग्रहों और 15
तिथियों की
स्थिति है।
सुख |
स्वर्ग |
दुःख |
नरक |
कर्म |
बन्धन |
निर्वकल्प |
मुक्ति |
वस्तु |
शरीर
में उनकी अवस्थिति |
1. कुलनाग |
वक्ष
स्थल |
2. मुनि |
काख के
रोम |
3. 33 करोड़
देवता |
हाथों के
रोम |
4. दानव यक्ष
पिशाच आदि |
हड्डियों
के जोडों में |
5. गन्धर्व
किन्नर आदि |
उदर |
6. खेचरी आदि
शक्तियां |
वायु का वेग |
7. मेघ |
आंसु |
8. तीर्थ |
मर्म
स्थान |
9. चाँद और
सूर्य |
दोनों
नेत्र |
10. वृक्ष आदि |
जंघा के
रोम |
11. कीट पतंग |
पुरीष |
पिण्डधार
सभी
पिंडों का
आधार
अपरम्परा नाम
की निजा शक्ति
इसे
अनुभव के
द्वारा केवल
अपने प्रकाश
से ही जाना जा
सकता है।
इसके
2 तत्व है
o कुल
o अकुल
यह
कुल 5 प्रकार
का होता है
o परा
o सत्ता
o अहन्ता
o स्फुरता
o कला
इसे
ही सम्पूर्ण
विश्व का आधार
कहा जाता है।
इसे
परा अपरा भी
कहते हैं
अकुल
o जाति,
वर्ण और गोत्र
आदि के कारण
रूप में
विद्यमान एक
तत्व।
o इसे
ही अनामा कहा
जाता है।
कुण्डलिनी
शक्ति 2
प्रकार की
होती है।
o प्रबुद्धा
o अप्रबुद्धा
इसे
सूक्ष्म और
स्थूल इन 2
भेदों के
आधार पर भी
वर्गीकृत
कीया जाता है।
शक्ति के 3
प्रकार
o ऊर्ध्व
o मध्य
o अधः
पिण्ड और
पद का समरसकरण
पर
पिण्ड से लेकर
स्वपिण्ड
पर्यंत सबको
जानकर परमपद
के साथ सामरस्य
स्थापित करना
समरसकरण
कहलाता है।
परमपद
शिव को केवल अपनी
अनुभूति के
द्वारा ही
समरमता
स्थापित की जा
सकती है।
सद्गुरु
की कृपा और
निज अनुभूति
के द्वारा ही
स्थापित की जा
सकती है।
पिण्ड
सिद्धि के बाद
योगी का वेश
o शंख और
मुद्रा धारण
करना,
o दाढ़ी मूछ
धारण करना,
o अमृत पान
करना इत्यादि
परम पद
की प्राप्ति
के उपाय |
|
सहज |
विश्व से परे
विद्यमान
परमेश्वर
विश्व के रूप
में अवभासित
हो रहा है, ऐसा
ज्ञान |
संयम |
चित्त के
व्यापारों
पर नियंत्रण |
सोपाय |
मैं स्वयं
शिव स्वरूप
हूँ ऐसा भाव
रखना |
अद्वैत |
|
इन चारों को
गुरु के
उपदेण से ही
जाना जा सकता है। |
सहज
विश्व से परे
विद्यमान
परमेश्वर
विश्व के रूप
में अवभासित
हो रहा है, ऐसा
ज्ञान
संयम
चित्त के
व्यापारों पर
नियंत्रण
सोपाय
मैं स्वयं
शिव स्वरूप
हूँ ऐसा भाव
रखना
अद्वैत
परम तत्व के
साथ तदात्म्य
इन
चारों को गुरु
के उपदेण से
ही जाना जा
सकता है।
योगी की विशेषताएं
वर्ष |
प्राप्त
होने वाली
स्थिति |
1. प्रथम |
सदा
रोगों से मुक्त
रहना |
2. दूसरा |
कृतार्थ
होना और सब शास्त्रों
का का ज्ञाता |
3. तीसरा |
शरीर
दिव्य होना, सर्प
आदि जंतु उसे
कष्ट नहीं
पहुंचाते |
4. चौथा |
भूख
प्यास आदि का
समाप्त होना |
5. पांचवा |
वाक्सिद्धि
और पर शरीर प्रवेश |
6. छठा |
अस्त्र
शस्त्र नहीं
काट सकते |
7. सांतवा |
वायु के
समान वेग,
दूरदर्शी और
पृथ्वी का
त्याग करने
वाला |
8. आठवाँ |
अणिमा
आदि
सिद्धियों
की प्राप्ति |
9. नौवां |
वज्र के
समान कठोर और
आकाश में गमन
करने वाला |
10. दसवां |
वायु से
भी तीव्र गति |
11. ग्यारहवां |
सर्वज्ञ
और सभी सिद्धियों
से युक्त |
12. बारहवां |
शिव के
समान
निर्माण और
संहार में
समर्थ |
गुरुकुल
संतान की |
उनके 5
तत्त्व |
उनके 5
गुण |
उनके 5
देवता |
उनकी 5
अवस्थाएं |
आई बिलेश्वर विभूति नाथ योगीश्वर |
पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश |
कठिनता आर्द्रता
(नमी) तेज संचरण
(गति) स्थिरता |
ब्रह्मा विष्णु रुद्र ईश्वर सदाशिव |
स्थूल सूक्ष्म कारण तुर्य तुर्यातीत |
योगी
की आलोच्य 5
अवस्थाओं का
सूक्ष्मतया
ज्ञाता योगी
ही सिद्धपुरुष एवं
योगीश्वरों
का ऐश्वर
कहलाता है।
परम
पद की
प्राप्ति में
कोई विधि या
निषेध नही
होता है।
गुरुप्रसाद
से ही परम पद
की प्राप्ति
की जा सकती
है।
परम पद की
निरुत्थान पद
कहा है।
अवधूतयोगी
के लक्षण
धूय
कम्पने धातु
से अवधूत शब्द
बनता है
वायु
तत्व का बीज य और
अग्नि तत्व का
बीज र इन
दोनों का
सामरस्य
चिद्रूप
ओंकार कहा गया
है
जो
प्रकृति के
सभी विकारों
को हटा देता
है
जो
अविद्यादि
क्लोशों और
कामनाओं को
भम्स कर देता
है
वह शंख
धारण करता है
अर्थात् शं
का अर्थ है
सुख और ख का अर्थ
है परब्रह्म।
5 मकार |
|
मद्य |
मद |
मुद्रा |
मति |
मीन |
माया |
मांस |
मन |
मैथुन |
प्राण और
अपान की एकता |
4
आश्रमों का
वर्णन |
|
ब्रह्मचारी |
जो ब्रह्म विचरण
करता है |
गृहस्थ |
नित्य
पूर्णता
जिसकी
गृहिणी है और
अचल आकाश जिसका
घर है |
वानप्रस्थ |
जो प्रकाशमय
रूपी वन में
प्रवेश कर लेता
है |
सन्यासी |
जिसके चित्त
में
परमात्मा और जीवात्मा
का सामरस्य
बना हुआ है |
जिसने माया,
ईश्वर प्रणिधान
और मन को वश
में कर लिया
है उसे
त्रिदण्डी
कहते है। |