योगवासिष्ठम् नोट्स

योगवासिष्ठम्

योगवासिष्ठम्

      प्रारम्भ में महर्षि विश्वामित्र एवं श्रीराम का संवाद है।

      परन्तु मुख्यतः श्रीराम वसिष्ठ का संवाद है।

      इस ग्रन्थ का प्रतिपादन

(i)                 अद्वैत की स्थापना

(ii)              वेदान्त का उपदेश

प्रकरण

1.      वैराग्य प्रकरण - मुख्यतः वैराग्य की चर्चा

मुमुक्षु व्यवहार (4 द्वारपाल का वर्णन)

2.      उत्पत्ति प्रकरण - उत्पत्ति की चर्चा (7 ज्ञान भूमुयॉ)

3.      स्थिति प्रकरण - उपशम प्रकरण

4.      निर्वाण प्रकरण - आधि-व्याधि का वर्णन

विश्वामित्र श्री रामचन्द्र जी को कहते हैं कि आपके लिए कुछ और जानने योग्य नहीं है। तुम सार-असार, हेय-उपादेय को जान गए हो और अद्वितीय परमात्मा तत्त्व भी तुम्हें ज्ञात हो चुका है। परन्तु किंचित अविश्वास रूपी मलीनता के कारण तुम्हारा मन विश्रान्त नहीं है क्योंकि अपनी बुद्धि से परमात्म तत्व को ज्ञात होने के बावजूद शास्त्र आदि तत्व आचार्य आदि के संवाद के बिना विश्वास नहीं होता।

बलवदपि शिक्षितानाम् आत्मनि अप्रत्ययः चेतः।

आगे कहते हैं तुम्हारी बुद्धि शुक के समान है। (आचार्य शुक महर्षि वेदव्यास/कृष्णद्वैपायन के पुत्र है) विश्वास, संतोष, शान्ति न होने का कारण तत्त्व ज्ञान का अभाव

शुक का पिता (कृष्णद्वैपायन) से प्रश्न

  यह संसार किस क्रम से उत्पन्न हुआ है?

  कब यह उच्छिण (विनाश) होता है?

  यह कितना बडा है?

  यह कबतक बना रहेगा?

  यह संसार किसका है (स्वामी कौन है)?

o  प्राण, मन, शरीर, इन्द्रीयॉ, निर्विकार चेतन स्वरूप

वेद व्यास का उत्तर सुनकर शुक ने प्रति-उत्तर में बोला कि यह तो मैं पहले से जानता था। जिज्ञासा देख पिता ने पुत्र को पृथ्वीलोक मैं राजा जनक के पास भेजा।

जनक ने 7-7-7 दिन तक क्रमशः महल के भीतरी भाग, ऑगन, अन्तःपुर में भोग विलास की वस्तुओं के साथ पात्रता जानने हेतु 21 दिन रखा। पात्रता परीक्षा की उत्तीर्णता के पश्चात् जनक ने वही उत्तर दिया जो व्यास ने दिया था। सिर्फ एक प्रश्न का उत्तर उद्धरित किया गया है

प्रश्न संसार किससे उत्पन्न हुआ?

उत्तर अन्तःकरण से उत्पन्न और उसी में नाश।

अब शुक संतुष्ट होकर 10,000 वर्ष के लिए निर्विकल्प समाधि में चले गये।

 

मोक्ष के 4 द्वारपाल शम, विचार, सन्तोष, सत्सङ्गति

(शमा ने विचार करती हुई सन्तोष के साथ सत्सङ्गति में गई) [remembering line]

1.      शम शान्ति (चित्त-हृदय-विचारों को शान्त करना)

                                i.            शिव है

                              ii.            भ्रान्तियों का विनाश होता है

                           iii.            परमपद है

                            iv.            इससे कल्याण होता है

                              v.            विषयासक्ति रहित है

लोक में संपूर्ण गुणों में शम सर्वाधिक श्रेष्ठ है।

2.      विचार पवित्र बुद्धि (शास्त्रज्ञान) से आत्मतत्व का निरन्तर चिंतना करना।

                                i.            अर्थ और अनर्थ के कारण का विचार

                              ii.            सार असार का विचार

                           iii.            हेय उपादेय का विचार

                            iv.            प्रमाण के तात्पर्य का विचार

                              v.            आत्मातत्व का विचार

फलः- पवित्र बुद्धि विचार के कारण सूक्ष्म तत्व के ग्रहण करने में अति निपुणता प्राप्ति के कारण परमपद एवं प्रकृति के यथार्थ के स्वरूप को देखती है।

विचार का स्वरूपः- किस प्रकार विचार करनी चाहिए।

-          मै कौन हूँ?

-          यह संसार रूपी दोष मुझे कैसे प्राप्त हुआ?

-          इससे मैं किस प्रकार हट सकता हूँ?

विचार करने से तत्व का ज्ञान विश्रान्ति प्राप्ति संपूर्ण दुःखों का नाश।

3.      संतोष परम श्रेय स्वर्ग सुख कहलाता है।

संतोष व्यक्ति के लक्षण

-          जो पुरुष अप्राप्त विषय की अभिलाषा नहीं करता।

-          समभाव (द्रष्टाभाव) से सुख-दुःख का भोग करता है।

-          इसके मुख पर लक्ष्मी विराजमान रहती है।

4.      सत्सङ्गति साधु (अच्छे पुरुष) की और शास्त्रों की संग।

साधु पुरुष का समागम/संगति प्राप्ति पर आत्मीय जन और धन से शून्य दुःखपूर्ण स्थान, धन-जन से परिपूर्ण हो जाता है, मृत्यु उत्सव में परिवर्तित हो जाती है, आपत्तियॉ संपत्ति सदृश प्रतीत होती है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को विपरीत परिस्थिति में भी साधु सङ्गति का त्याग नहीं करना चाहिए।

जो संसार रूपी सागर सें निमग्न है, ये 4 द्वारपाल उसे तैराते है यानि बचाते है।

 

शम = परम सुख

विचार = परम ज्ञान

संतोष = सर्वश्रेष्ठ लाभ

सत्संगति = परम गति (किसी एक का भी उत्तम अभ्यास से शेष का अभ्यास स्वतः होजाता है।)

 

7 ज्ञान व योग भूमियॉ

ज्ञान की परिभाषा अखण्डाकार चित्तवृत्ति में आरूढ ब्रह्म का ज्ञान, अज्ञान को हटाने वाला होने से, ज्ञान कहलाता है।

ब्रह्म में दो रूप हैं

      ज्ञान

      ज्ञेय मुक्ति, मोक्ष, सत्वाबोध.

 

7 भूमियॉ

(शुभेच्छा, विचारणा, तनुमानसा, सत्वापत्ति, असंसक्ति, पदार्थाभावनी, तुर्यगा)

1.     शुभेच्छा

श्रवण आदि में प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप आत्म (ईश्वर या ब्रह्म) साक्षात्कार की उत्कट इच्छा।

2.     विचारणा

श्रवण के पश्चात (शुभेच्छा के पश्चात)

शास्त्र अभ्यास

गुरुओं के साथ संसर्ग

वैराग्य - अभ्यास पूर्वक मन की प्रवृत्ति

3.     तनुमानसा

श्रवण मनन (विचारणा-शुभेच्छा) के अभ्यास से साधन चातुष्ट्य (विवेक, वैराग्य, शमादि षट् संपत्ति, मुमुक्षुत्व) का पालन करते हुए किसी एक विषय में निदिध्यसन होने से मन की किसी एक विषय में असंतता (अनासक्ति) रूपी तनुता (क्षीणता) है, वह तनुमानसा कहलाता है। इसे सविकल्प समाधि भी कहते है।

4.     सत्वापत्ति

3 भूमिकाओं के अभ्यास से बाह्य विषयों में संस्कार क्षीण होने के कारण चित्त में अत्यन्त विरक्ति उत्पन्न होले लगती है। परिणामस्वरूप मन परमात्मा में स्थिर हो जाता है। यह सत्वापत्ति कहलाता है। इसे निर्विकल्प समाधि भी कहते है। इस अवस्था में जीव ब्रह्मवित् होता है।

5.     असंसक्ति

आलोच्य 4 भूमिकाओं के अभ्यास से बाह्य एवं आभ्यन्तर विषय और उनके संस्कारों से चित्त का संबन्ध हट जाता है। परिणामस्वरूप ब्रह्मात्मभाव साक्षात्कार (चमत्कार) उत्पन्न होता है।

परीणाम स्वरूप निरतिशय आनन्द (परम आनन्द) की प्राप्ति होती है, इसे असंसक्ति कहते है। इसमे अविद्या और उसके कार्यों से सङ्ग हट जाता है। इस अवस्था में जीव ब्रह्मवित् वर (श्रेष्ठ) होता है।

6.     पदार्थाभावनी

पूर्वोक्त 5 भूमिकाओं के अभ्यास से योगी की ब्रह्म रूप में दृढ़ स्थिति होती है। परिणामस्वरूप बाह्य और आभ्यन्तर सभी पदार्थों की भावना/होना (existence) समाप्त हो जाता है, इसे ही पदार्थाभावनी अवस्था कहा जाता है।

इस अवस्था में जीव/पुरुष/आत्मा ब्रह्मवित् वरीयान् हो जाता है।

7.     तुर्यगा

आलोच्य 6 भूमिकाओं को लम्बे समय तक अभ्यास से दूसरों के द्वारा प्रयत्न करने पर भी भेद की प्रतीती नहीं होती है और वह एकमात्र अपने स्वरूप में रहता है। इसे तुर्यगा कहते है।

इस अवस्था में जीव ब्रह्मवित् वरिष्ठ कहलाती है।

 

दूसरी व्याख्या या दूसरा प्रकार

पहली भूमिका

श्रवण

 

जागृत रूप

दूसरी भूमिका

मनन

तीसरी भूमिका

निदिध्यासन

चौथी भूमिका

विलापनी (अविद्या विलय)

स्वप्न रूप

पॉचवी भूमिका

आनन्द स्वरूप/सुषुप्त रूप

सुषुप्त रूप

छठी भूमिका

ब्रह्म रूप

तुर्य रूप

सातवी भूमिका

तुर्यगा

तुर्यातीत
आत्यन्तिक जीवनमुक्तता

सात भूमिकाओं में योगी के प्रकार (स्थिति)

1.      प्रवृत्ति मार्ग स्वर्ग की अभिलाषा रखने वाला।

2.      निवृत्ति मार्ग मोक्ष मार्ग की अभिलाषा रखने वाला।

 

आधि-व्याधि

      योगवसिष्ठ के अनिसार शरीर में 100 प्रधान/मुख्य नाडियाँ है।

      इनसे ही सामान्य नाडियाँ निकली हैं।

      जब अन्न एवं रस पहुँचाने वाली नाडियें में कफ-पित्त बढ़ जाता है, परिणामस्वरूप अन्न के प्रवाह में रुकावट (विषमता) उत्पन्न हो जाती है। फलतः वहाँ पर स्थित वायु/प्राण में विषमता उत्पन्न होना, रोगों की उत्पत्ति का कारण बनना।

सामान्य नाड़ी एवं प्रधान नाड़ी में रुकावट आने से क्रमशः सामान्य एवं विशिष्ट रोग उत्पन्न होता है।

 

रोगों का प्रकार

शारीरीक रोग

व्याधि

दुःख का कारण अज्ञान

औषधि द्वारा निवृत्ति

ज्ञान द्वारा समूल नाश

मानसिक रोग

आधि

 

आधिः मानसिक दुःख

तत्व ज्ञान एवं इन्द्रिय नियन्त्रण के अभाव में चित्त का राग-द्वेष में फँस जाने के कारण, यह प्राप्त हो गया है एवं यह शेष रह गया है, इस प्रकार दिन-रात चिन्ता करने से चित्त की जड़ता के कारण महामोह उत्पन्न करने वाली आधि उत्पन्न होती है।

आधि से व्याधि उत्पन्न हो जाती है, एवं इसके अभाव से व्याधि नष्ट हो जाती है।

 

व्याधिः शारीरिक दुःख

व्याधि का कारण है प्रबल इच्छाओं के पुनः-पुनः उत्पन्न होना, मूर्खता, दुष्कर्म, श्मशान आदि निकृष्ट स्थानों में वास, नाडियों में अन्न का प्रवेश न होना, दुष्ट अन्न खाना।

o  व्याधि का प्रकार

  सामान्य/कोमल Extrinsic factor से उत्पन्न

-          क्षुधा, तृष्णा, स्त्री-पुत्र कामना आदि...

  सार/दृढ़ता Intrinsic factor से उत्पन्न

-          जन्म इत्यादि विकारों की जड़ है। आनुवंशिक रूप से उत्पन्न होती है।

आत्मज्ञान के बिना व्याधि का नाश संभव नहीं है

      मन्त्रों से व्याधि का नाश


o  वायु यं

o  अग्नि रं

o  पृथ्वी लं

o  जल वं


इन मन्त्रों के जाप से नाडियों मे अन्न एवं रस का संचरण भली-भाँन्ति प्रकार से होने लगती है।

      आधि नाश के उपाय

चित्त के शुद्ध हो जाने पर शरीर में आनन्द बढ़ता है। फलतः प्राण वायु शुद्ध होकर अन्न का अच्छे से परिपाक (process) करती है।