गोरक्षसंहिता नोट्स

गोरक्ष संहिता

गोरक्ष संहिता

      गोरक्षनाथ प्रारम्भ में गुरु को नमस्कार किया।

      ग्रन्थ को पढने का फल परम पद की प्राप्ति

      जिस व्यक्ति का मन विषयों से हटकर परमात्मा में लग जाता है वह मुक्ति को सोपान पे चढ जाता है।

      वह काल मृत्यु को जीत लेता है।

      योग के 6 अङ्ग

o  आसनं प्राणसंरोधः प्रत्याहारश्च धारणा।
ध्यानं समाधिरेतानि योगाङ्गानि भवन्ति षट्।।


1.      आसनम्

2.      प्राणसंरोधः

3.      प्रत्याहारः

4.      धारणा

5.      ध्यानम्

6.      समाधिः


      आसन

o  84 लाख

o  प्रमुख 84

o  उसमें भी प्रमुख 2

  सिद्धासन

-          जालन्धर बन्ध, भ्रूमध्य दृष्टि

-          लाभः- मोक्ष द्वार का भेदन

  पद्मासन (कमलासन)

-          बद्धपद्मासन जालन्धर बन्ध, नासाग्र दृष्टि

-          लाभः- व्याधियों का विनाश

      शरीर के 29 तत्वों को जो जानता है वही वास्तव में सिद्ध योगी है। जो नहीं जानता है उसका योग सिद्ध नही हो सकता।

o  षट्चक्रं षोडषाधारं द्विलक्ष्यं व्योमपञ्चकम्।

  6 चक्र

  16 आधार

  2 लक्ष्य

  5 व्योम

      15 तत्व

o  1 स्तम्भ (मन)

o  9 द्वार (7 in head & 2 excretory)

o  5 अधिदैवत (महाभूत)

      6 चक्र


o  आधार - 4

o  स्वाधिष्टान - 6

o  मणिपुर (नाभिचक्र) - 10

o  अनाहत (हृदय) - 12

o  विशुद्ध - 16

o  भ्रूमध्य - 2


      16 आधार


1.      पैर का अंगूठा

2.      मूल

3.      गुदा

4.      मेढ्र/लिङ्ग

5.      ओड्याण

6.      नाभि

7.      हृदय

8.      कंठ

9.      घंटिका

10.  तालु

11.  जीह्वा

12.  भ्रूमध्य

13.  नासिका

14.  नासिका के मूल में कपाट

15.  ललाट

16.  ब्रह्मरन्ध्र/आकाश


      आधार चक्र और स्वाधिष्टान चक्र क मध्य योनि स्थान है, जहा पर कामाख्या पीठ विद्यमान है।

      10 नाडियॉ

o  मेढ्र (लिङ्ग) से ऊपर और नाभि से नीचे पक्षी के अण्डे (खगाण्ड) के समान एक कन्द स्थान है जहा से 72000 नाडियॉ की उत्पत्ति होती है।

o  उनमें 72 मुख्य है।

o  उनमे भी प्राणों का संचरण करने वाली 10 नाडियॉ ही मुख्य है।

  इडा च पिङ्गला चैव सुषुम्ना च तृतीयगा ॥ १६॥
गान्धारी हस्तिजिह्वा च पूषा चैव यशस्विनी ।
अलम्बुसा कुहूश्चैव शङ्खिनी दशमी स्मृता ॥ १७॥

  इडा वामे स्थिता भागे दक्षिणे पिङ्गला स्थिता ॥ १८॥
सुषुम्ना मध्यदेशे तु गान्धारी वामचक्षुषि ।
दक्षिणे हस्तिजिह्वा च पूषा कर्णे च दक्षिणे ॥ १९॥
यशस्विनी वामकर्णे चानने चाप्यलम्बुसा ।
कुहूश्च लिङ्गदेशे तु मूलस्थाने तु शङ्खिनी ॥ २०॥ 

इडा

Left Nostril

पिङ्गला

Right Nostril

सुषुम्ना

Between Left & Right

गान्धारी

Left Eye

हस्तिजिह्वा

Right Eye

पूषा

Right Ear

यशस्विनी

Left Ear

अलम्बुसा

Mouth

कुहु

Reproductive Organ

शंखिनी

Anus

 

o  नाडी देवता (सोमसूर्याग्नि देवताः)

इडा

सोम

पिङ्गला

सूर्य

सुषुम्ना

अग्नि

      10 प्राणाः

o  प्राणापानसमानाख्या व्यानोदानौ च वायवः।
नागः कूर्मोऽथ कृकरो देवदत्तो धनञ्जयः।।

  हृदि प्राणः स्थितो नित्यमपानो गुदमणडले।
समानो नाभिदेशे तु उदानः कण्ठमध्यगः।
व्यानः सर्वशरीरे तु प्रधानाः पञ्च वायवः।।

  उद्गरे नाग आख्यातः कूर्म उन्मीलने तथा।
कृकरः क्षुत्करो ज्ञेयो देवदत्तो विजृम्भणे।।
न जहाति मृतं वापि सर्वव्यापी धनञ्जयः।

प्राण

हृदय

अपान

गुदा

व्यान

संपूर्ण शरीर

उदान

कण्ठ

समान

नाभि

नाग

उद्गर

कूर्म

उन्मीलन

कृकल

क्षुत्कर

देवदत्त

विजृम्भण

धनञ्जय

मरने के बाद भी शरीर को नही छोडता (सर्वव्यापी)

      इन सभी नाडियों में जीव रहता है। प्राण और अपान के वशीभूत होकर जीव ऊपर और नीचे भ्रमण करता है।

      अजपा गायत्री (हंस जप)

  हंसहंसेत्यमुं मत्रं जीवो जपति सर्वदा ॥
षट्शतानि दिवारात्रौ सहस्राण्येकविंशतिः।
एतत्सङ्ख्यान्वितं मन्त्रं जीवो जपति सर्वदा ॥
अजपानाम गायत्री योगिनां मोक्षदा सदा ।
अस्याः सङ्कल्पमात्रेण सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥
अनया सदृशी विद्या अनया सदृशो जपः।
अनया सदृशं ज्ञानं न भूतं न भविष्यति ॥

o  श्वास छोडने पर हकार और श्वास लेने पर सकार

o  1 दिन में 21600 बार जप

o  लाभ (अजपा नाम गायत्री योगिनां मोक्षदा सदा)

  मोक्ष प्राप्त कराने वाला

  संकल्प मात्र से सभी पापों का नाश करने वाला

  इसके समान विद्या, इसके समान जप, इसके समान ज्ञान न हुआ है, न होगा।

      शक्तिचालन -

o  कन्दोर्ध्वे कुण्डलीशक्तिरष्टधा कुण्डलीकृतिः ।
बन्धनाय च मूढानां योगिनां मोक्षदा सदा ॥

  कन्द के ऊपर 8 फेरे लगाई हुई शक्ति विद्यमान है, जिसने ब्रह्म द्वार के मुख को अपने मुख से ढक रखा है।

      कुण्डलिनी के जागरण का उपाय

o  बुद्धि योग

o  वह्नि योग (प्रबुद्धा वह्नियोगेन)

  लाभ मोक्ष द्वार का भेदना

  शक्ति चलन से उत्पन्न पसीने को अपने शरीर पर मर्दन कर लेना है।

-          अङ्गानां मर्दनं कृत्वा श्रमसंजातवारिणा ।

      कट्वम्ललवणत्यागी क्षीरभोजनमाचरेत् ॥

o  अपथ्य कटु, आमला, लवण

o  पथ्य क्षीर भोजन

      ब्रह्मचारी, मिताहारी, त्यागी, योगपरायणः

      मिताहार

o  सुस्निग्धमधुराहारश्चतुर्थांशविवर्जितः ।
भुज्यते शिवसम्प्रीत्यै मिताहारः स उच्यते ॥
१.६० ॥

o

मुद्राए

      5 स्वीकार की गई है।

o  महामुद्रा नभोमुद्रा ओड्याणं च जलन्धरम्।
मूलबन्धं च यो वेत्ति स योगी मुक्तिभाजनम्।।


  महामुद्रा

  नभोमुद्रा (खोचरी)

  उड्यान

  जालन्धर

  मूलबन्ध


      महामुद्रा

o  शोधनं नाडिजालस्य चालनं चन्द्रसूर्ययोः।
रसानां शोषणं चैव महामुद्राभिधीयते।।

o  लाभः-

  नहि पथ्यमपथ्यं वा रसाः सर्वेऽपि नीरसाः।
अतिभुक्तं विषं घोरं पीयूषमिव जीर्यते।।

  क्षयकुष्ठगुदावर्तगुल्माजीर्णपुरोगमाः।
तस्य रोगाः क्षयं यान्ति महामुद्रां तु योऽभ्यसेत्।।

-          पथ्य-अपथ्य, रस-निरस का भेद नही रहता।

-          भयङ्कर विष भी अमृत हो जाता है।

-          क्षय, कुष्ठ, गुदावर्त, जीर्ण, गुल्म रोग ठीक हो जाते है।

      नभोमुद्रा (खेचरी)

o  कपालकुहरे जिह्वा प्रविष्टा विपरीतगा।
भ्रुवोरन्तर्गता दृष्टिर्मुद्रा भवति खेचरी।।
(नभोमुद्रा)

o  लाभ

  न रोगो मरणं तस्य न निद्रा न क्षुधा तृषा।
न च मूर्छा भवेत्तस्य यो मुद्रां वेत्ति खेचरीम्।।

  पीड्यते न च रोगेन लिख्यते न स कर्मभिः।
बाध्यते न च केनापि यो मुद्रां वेत्ति खेचरीम्।।

o  बिन्दु 2 प्रकार का होता है

  पाण्डुर - शुक्र

  लोहित महारज

o  बिन्दु शिव है, रज शक्ति है।

o  बिन्दु चन्द्र है, रज रवि है।

  इन सबके संयोग से परम पद की प्राप्ति होती है।

      उड्डीयान बन्ध

o  मृत्यु रूपी हाथी के लिए शेर के समान है।

      जालन्धर बन्ध

o  ये नभोजल (चन्द्रामृत) को नीचे गिरने से रोकता है।

o  दुःख समूह का नाश करने वाला।

      मूल बन्ध

o  अपान और प्राण की एकता से मूत्र-पुरीष का क्षय हो जाता है।

o  वृद्ध युवा होजाता है।

 

      प्रणव का अभ्यास

o  पद्मासन

o  सिर और गर्दन सीधी

o  नासाग्र दृष्टि

o  ओ३म् का जाप

  भूर्भुवःस्वरिति मे लोकाः सोमसूर्याग्नि देवताः।
यस्य मात्रासु तिष्ठन्ति तत्परं ज्योतिरोमिति।।

  - भूः - सोम देवता

  - भुवः - सूर्य देवता

  म् - स्वः - अग्नि देवता

o  प्रणव में अलग अलग पदार्थों की अवस्थिति

  3 काल - 3 वेद - 3 लोक - 3 स्वर - 3 देव

  जिस में ये स्थित है वह परम ज्योति ओ३म् है।

o  क्रिया इच्छा तथा ज्ञानं ब्राह्मी रौद्रीवैष्णवी।
त्रिधा मात्रा स्थितिर्यत्र तत्परं ज्योतिरोमिति।।

  अकार, उकार, मकार जिस में स्थित है, वह परम ज्योति ओ३म् है।

  वाणी से जिसका जप, शरीर से जिसका अभ्यास, मन से जिसका स्मरण हो वह परम ज्योति ओ३म् है।

  प्रणव जप का लाभ पापों से लिप्त नही होता।

भूः

सोम

स्थूल

राजस्

रक्त

ब्रह्म

क्रिया

भुवः

सूर्य

सूक्ष्म

सात्विक

शुक्ल

विष्णु

ज्ञान

म्

स्वः

अग्नि

कारण

तामस्

कृष्ण

रुद्रः

इच्छा

 

प्राणायाम

      चले वाते चलो बिन्दुर्निश्चले निश्चलो भवेत्।
योगी स्थाणुत्वमाप्नोति ततो वायुं निरुन्धयेत्।।

o  प्राण के चलायमान होने से बिन्दु चलता है और प्राण के स्थिर होने से बिन्दु की स्थिरता होती है।

      यावद्वायुः स्थितो देहे तावज्जीवो न मुञ्चति।
मरणं तस्य निष्क्रान्तिस्ततो वायुं निरुन्धयेत्।।

      प्राण रूपी हंस की गति 36 अङ्गुल तक है।

      नाडीशोधन

o  आसम बद्धपद्मासन,

o  चन्द्राङ्ग प्राणायाम (नाडीशोधन को कहते है)

  इडा से पूरक कुम्भक पिङ्गला से रेचक।

  लाभ - सुख की प्राप्ति

o  सूर्याङ्ग प्राणायाम

  पिङ्गला से पूरक कुम्भक इडा से रेचक।

  लाभ - सुख की प्राप्ति

o  इस प्रकार से 3 मास में सभी नाडिया शुद्ध हो जाती है।

o  नाडीशोधन का फल

o  यथेष्टधारणं वायोरनलस्य प्रदीपनम् ।

नादाभिव्यक्ति-रारोग्यं जायते नाडिशोधनात् ॥

  अग्नि प्रदीप्त

  नाद का प्रकट होना

  आरोग्यता

      प्राणायाम के 3 भाग

o  रेचकः पूरकश्चैव कुम्भकः प्रणवात्मकः।

  रेचक

  पूरक

  कुम्भक

o  मात्राओं के आधार पर प्राणायाम के 3 प्रकार

 

(पूरक)

(कुम्भक)

(रेचक)

परिणाम

अधम

12

16

10

पसीना (घर्म)

मध्यम

24

32

20

कंपन

उत्तम

36

48

30

भूमित्याग

 

      प्राणायाम की विधि

o  बद्धपद्मासनो योगी नमस्कृत्य गुरुं शिवम्।
भ्रूमध्ये दृष्टिरेकाकी प्राणायामं समभ्यसेत्।।

  बद्धपद्मासन

  गुरु को नमस्कार

  भ्रूमध्य दृष्टि

  प्राण और अपान का संगम

o  लाभ पापों का नाश

      योग के 6 अङ्गों का फल

o  आसनेन रुजं हन्ति प्राणायामेन पातकम्।
विकारं मानसं योगी प्रत्याहारेण मुञ्चति।।

o  धारणाभिर्मनोधैर्यं याति चैतन्यमद्भुतम्।
समाधौ मोक्षमाप्नोति त्यक्त्वा कर्म शुभाशुभम्।।

आसन

रोगों का नाश

प्राणायाम

पातक (पापों) का नाश

प्रत्याहार

मन के विकारों का नाश

धारणा

धैर्य

ध्यान

अद्भुत चैतन्य की प्राप्ति

समाधि

मोक्ष की प्राप्ति

 

      योग सिद्धि के लक्षण

o  घण्टा इत्यादि ध्वनियों की उत्पत्ति

o  सभी रोगों का क्षय

      गलत प्राणायाम करने से हानि

o  हिक्का कासस्तथा श्वासः शिरःकर्णाक्षिवेदनाः।
भवन्ति विविधाः रोगाः पवनव्यत्ययक्रमात्।।

  हिचकी, खॉसी, श्वास, सिर ऑख और कर्ण मे पीडा

 

      प्रत्याहार

o  चरतां चक्षुरादीनां विषयेषु यथाक्रमम्।
यत्प्रत्याहरणं तेषां
प्रत्याहारः स उच्यते।।

  चक्षु इत्यादि इन्द्रियों को अपने अपने विषय से पृथक कर लेना प्रत्याहार कहलाता है।

  5 ज्ञानेन्द्रियों के 5 विषयों से आत्मवत् भाव समझ कर इन्द्रियों का खींच लेना प्रत्याहार है।

  हठ योग की दृष्टि से चन्द्रमा से स्रावित रस को सूर्य से खींच लोना प्रत्याहार है।

 

      विपरीतकरणी मुद्रा अमृत की रक्षा

      काकी मुद्रा कौए के समान चौंक बनाकर जल पीना है।

o  लाभ

  सभी रोगों का नाश

  चन्द्र (तालुमूल) से स्रावित अमृत के पान का फल

  अणिमादि सिद्धियों की प्राप्ति

  तक्षक सर्प के काटने पर भी कुछ नही होता

 

धारणा

      5 प्रकार की धारणा (घेरण्ड के समान)

पाथृवी

स्तम्भिनी स्तम्भन करने वाली

 

आम्भसी

द्राविणी liquid बना देता है

कालकूट विष भी अप्रभावित रहता है

आग्नेयी

दाहिनी

 

वायव्यी

भ्रामिणी

आकाश गमन की शक्ति

आकाश

शोषिणी

मोक्ष द्वार का भेदन

 

 

ध्यान

      अपने चित्त में आत्म तत्त्व का चिन्तन करना ध्यान कहलाता है।

o  सकल ध्यान

o  निष्कल ध्यान (निर्गुण ध्यान)

  लाभ पापों से मुक्ति

      चक्र

चक्र

लाभ

चमक

आधार

पापों से मुक्ति

स्वर्ण

स्वाधिष्ठान

सुख की प्राप्ति

माणिक्य

मणिपुर

जगत को क्षुभित
(अस्त व्यस्त) करने वाला

आदित्य

हृदयाकाश (अनाहत)

ब्रह्ममय हो जाना

प्रचण्ड आदित्य या रवि

विशुद्ध

आनन्दमय

दीपक

भ्रूचक्र

आनन्दमय

माणिक्य ---

 

o  जो निर्गुण शिव और शान्त का ध्यान करता है वह ब्रह्ममय होजाता है।

      ध्यान के 9 स्थान


1.      गुदा

2.      मेढ्र

3.      नाभि

4.      हृदयचक्र

5.      विशुद्धचक्र

6.      घण्टिका

7.      लंबिका

8.      भ्रूमध्य

9.      नभोबिल (शून्य)


  इन 9 स्थानों पर ध्यान करने से 8 (अष्ट) गुणों का उदय होता है।

o  ध्यान योग की श्रेष्ठता

  हजारों अश्वमेध सैकड़ों वाजपेय यज्ञ ध्यान के 16वॉ अंश के बराबर भी नही है।

 

समाधि

      उपाधि वर्ण

      तत्व आत्मा

o  उपाधि से मिथ्या ज्ञान होता है

o  तत्व से यथार्थ ज्ञान होता है

      जब तक पॉचों ज्ञानेन्द्रियों मे उनके विषयों का अंश विद्यमान रहता है तब तक ध्यान की अवस्था कहलाती है, विषयों के पूर्णरूप से हटने पर समाधि अवस्था कहलाती है।

      समाधि की परिभाषा

o  5 घड़ी तक (5 नाड़ी तक) प्राण का अवरोध करना धारणा कहलाता है, 60 नाड़ी तक प्राणों को रोकना ध्यान कहलाता है, 12 दिनों तक प्राणों का संयम समाधि कहलाता है।

o  जीवात्मा और परमात्मा की एकता होने पर सभी संकल्पों का नष्ट हो जाता

o  आत्मा और मन की एकता

o  मन का क्ष्णीण होकर मन के साथ विलय हो जाना

o  समरसत्व समरसता (समरसता होजाना)

  समाधि की स्थिति में किसी भी विषय का ज्ञान नहीं होता है।

  सभी शस्त्रों से अविद्द है, सभी शरीर धारीयों के द्वारा अवद्य है, मन्त्र और यन्त्रो के द्वारा अग्राह्य है।

  काल और कर्म से प्रभावित नहीं होता

  युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।
गीता

  योगी समाधि से मोक्ष प्राप्त करने पर ईश्वर के साथ एकता भाव को ग्रहण करता है।