नादबिन्दूपनिषत्
ऋग्वेद
o मंत्र 56
ओंकार
रूपी हंस का
शरीर में
प्रतीक
o अकारो
दक्षिणः पक्ष
उकारस्तूत्तरः
स्मृतः ।
मकारं
पुच्छमित्याहुरर्धमात्रा
तु मस्तकम् ॥
वैराज
प्रणव का
स्वरूप |
शरीर
में प्रतीक |
मात्रा
का नाम |
अकार
मात्रा |
दक्षिण
पक्ष |
आग्नेयी |
उकार मात्रा |
उत्तर
पक्ष |
वायव्या |
मकार
मात्रा |
पुच्छ
(पूंछ) (feet) |
सूर्य
(भानु मण्डल) |
अर्ध
मात्रा (ईश्वर
स्वरूप) |
मस्किष्क |
वारुणी |
धर्मोऽस्य
दक्षिणश्चक्षुरधर्मो
योऽपरः स्मृतः
॥ धर्म दक्षिण
चक्षु अधर्म वाम
चक्षु |
||
भूर्लोकः
पादयोस्तस्य
भुवर्लोकस्तु
जानुनि । जनोलोकस्तु
हृद्देशे
कण्ठे
लोकस्तपस्ततः
। |
||
भूः
लोक |
दोनो
पैर |
|
भुवः
लोक |
जानु (knee) |
|
स्वः
लोक |
कटि
प्रदेश |
|
मह
(विस्तार) |
नाभि |
|
जनः |
हृदय |
|
तपः |
कण्ठ |
|
सत्यम् |
भ्रूमध्य |
|
वैराज
प्रणव रूपी/हंस
विद्या का फल -
o
विराज
प्रणव रूपी हंस
पर आरूढ़ होकर
योगी करोड़ों
पाप कर्म से
भी पीड़ित
नहीं होता
प्रणव
की 12 मात्राओं
का उल्लेख
मात्रा
का नाम |
फल |
घोषिणी |
भारतवर्ष
में
चक्रवर्ती
सम्राट के
रूप में सार्वभौमिक
राजा |
विद्युत |
महात्मा
यक्ष के रूप में
उत्पन्न |
पतंगिनी |
विद्याधर
के रूप में
उत्पन्न |
वायुवेगिनी |
गंधर्व
के रूप में |
नामधेया |
देवों
के साथ निवास
और सोम लोक की
प्राप्ति |
ऐन्द्री |
इंद्र
का साथ
प्राप्त
करता है |
वैष्णवी |
वैष्णव
पद की
प्राप्ति |
शांकरी |
रुद्र
पद की
प्राप्ति |
महती |
मह
लोक की प्राप्ति |
धृति
(द्युति) |
जनः लोक
की प्राप्ति |
नारी |
तपः लोक की
प्राप्ति |
ब्राम्ही |
ब्रह्म
की
प्राप्ति |
उस ब्रह्म
से परे अतीव शुद्ध,
व्यापक,
निर्मल,
अतिंद्रीय और
गुणातीत
परब्रह्म विद्यमान
है। जब योगी
का मन
परब्रह्म में
लीन हो जाता
है वह शिव,
शांत और
योगयुक्त हो
जाता है
ये संसार
रस्सी में
सांप की भांति
मिथ्या है (अध्यस्थ,
अध्यास) जैसे
स्वप्न में
देखे गए सभी
पदार्थ जाग्रत
अवस्था में
असत्य जान
पड़ते हैं उसी
प्रकार अविद्या
के कारण
ब्रह्म हमें
जगत रूप में
दिखाई देता है,
लेकिन विद्या
हटने पर वह
जगत असत्य
पड़ता है
जगत
का उपादान
कारण जगत है
नादानुसंधान
- सिद्धासन
में बैठकर
वैष्णवी
मुद्रा का
अनुसंधान
करना चाहिए,
अर्थात् दायिने
कान से अंदर
की अनाहत
ध्वनि को
हमेशा सुनना चाहिए
यह नाद
बाहर की सभी
ध्वनियों को
ढक लेता है और
अंत में तुरीय
पद की
प्राप्ति
कराता है
नाद
के अभ्यास के
प्रारंभ में
अनेक प्रकार
की महत् (बड़ी
ध्वनियां)
सुनाई देती है,
जैसे महाभेरी।
लेकिन
जैसे-जैसे
अभ्यास बढ़ता
है वैसे-वैसे
नाद सूक्ष्म
से सूक्ष्म
होता जाता है
o
नाद 2
प्रकार
1.
घन (अभेध
ध्वनि)
2.
सूक्ष्म
(अतिमंद
ध्वनि)
आदि
ध्वनि - जलाधि (सागर),
जीमूत (बादल) भेरी
निर्झर
मध्य
ध्वनि -
मर्दल (मृदंग) नगाड़ा,
घंटा
अंत
ध्वनि किंकिणी,
वंशी (फ्लूट), वीणा, भ्रमर
इस
प्रकार मन को
नाद के साथ एकीभूत
करने पर मन
चिदाकाश (शून्य)
में लीन हो
जाता है।
जब मन नाद
में आसक्त हो
जाएगा तो उसका
अन्य विषयों से
अपेक्षा रहित (distract) हो
जाएगा। परिणामस्वरूप
अपनी चंचलता
को छोड़कर
शांत हो जाता
है
नाद
के अनुभव के
पश्चात मन निःशब्द
हो जाता है
तब वह
परब्रह्म में
लीन हो जाता
है, क्योंकि
जब तक नाद चल
रहा है तब तक
मन है, जैसे ही
नाद समाप्त होता
है, मन उन्मन (शून्य)
होकर मनोन्मनी
अवस्था
प्राप्त कर
लेता है
मनोन्मनी
अवस्था
प्राप्त होने
पर योगी काष्ठवत्
(लकड़ी के
समान) हो जाता
है, अर्थात्
सर्दी, गर्मी,
मान-अपमान
इत्यादि
अनुभव नहीं
करता, और
जागृत स्वप्न
और सुषुप्ति
अवस्था को
प्राप्त कर तुरीय
अवस्था को
प्राप्त कर
रहा है
योगी के
अपने स्वरूप
में प्राप्त
होने पर लाभ
o
बिना विषय
के दृष्टि
स्थिर हो जाती
है
o
बिना
प्रयत्न के
प्राण स्थिर
हो जाती है
o
बिना
अवलंबन के
चित्त स्थित
हो जाती है
मन की स्थिरता
को समझाने के
लिए नाद के
संबंध में दी
गई उपमाए
o
सांप की
चपलता (चंचलता)
को शांत करने
के लिए गंध के
समान
o
भंवरे को
अन्य गंध से
हटाने के लिए पुष्प
रस के समान
o
मदमस्त
हाथी को
नियंत्रित
करने के लिए
अंकुश के समान
o
चंचल हिरण
को रोकने के
लिए जाल के समान
o
सागर को
रोकने के लिए
किनारे के
समान