योगतत्त्वोपनिषत्
(ब्रह्म
विष्णु संवाद)
कृष्ण
यजुर्वेद
o मंत्रों
की संख्या 142
प्रजापति
ब्रह्मा और
महायोगी विष्णु
का संवाद
प्रश्न
- परमात्मा
जीव भाव को कब
प्राप्त होता
है?
उत्तर
- पुण्य
और पाप के फल
से आवृत होकर
वह ब्रह्म, (चैतन्य/आत्मा) जीव के
रूप में परिणत
हो जाता है।
o परमात्मा
की जीव भाव
में प्राप्ति
की प्रक्रिया
-
परमात्मा
में स्फुरण (इच्छा)
उत्पन्न हुआ,
जिससे अहंकार
उत्पन्न हुआ,
तथा फिर 5
भूतों से युक्त
पिंड पैदा
हुआ, वह पिंड
धातु और 3 गुणों
(वात, पित्त, कफ)
से युक्त था,
उसी पिंड को सुख-दुख
भाव से युक्त
होने के कारण
जीव कहा गया।
उस जीव के
अंदर काम,
क्रोध, लोभ, भय इत्यादि
दोष हैं,
जिससे
विमुक्त होने
पर वह केवल चैतन्य
ही रह जाता है।
मोक्ष
प्राप्ति का
उपाय
केवल
योग या केवल ज्ञान
मोक्ष
प्राप्त करने
में समर्थ
नहीं हैं, अतः
मोक्ष
प्राप्ति के
लिए योग और
ज्ञान का दृढ़ता
से अभ्यास
करना चाहिए
ज्ञान
का स्वरुप
वह
चैतन्य
निष्कल (कलाओं
से रहित/अंश रहित),
निर्मल,
साक्षात्
सच्चिदानंद
स्वरूप,
उत्पत्ति,
स्थिति और नाश
से रहित है। ऐसा
जानना ही
ज्ञान कहलाता
है।
ज्ञान
की महत्ता
o अज्ञान से
ही संसार है
o ज्ञान से
ही मोक्ष है
योग
का स्वरूप - योग के
प्रकार (मंत्र,
लय, हठ, राज)
मंत्र
योग - 12
वर्ष तक
मात्रिका (उच्चारण)
सहित मंत्र का
जप करना
o फल - अणिमा आदि
सिद्धियों की
प्राप्ति
o इस योग को अधम
कोटी का माना
जाता है
लय
योग -
चलते फिरते,
सोते जागते हर
समय निष्कल
ईश्वर का
ध्यान करना लय
योग है
o इसके करोड़ों
प्रकार है
हठयोग
- यह 8
अंग वाला है
o योग के 8
अंग
1.
यम
- यमों में मिताहार
श्रेष्ठ है
2.
नियम
- अहिंसा
श्रेष्ठ है
3.
आसन
- आसन में सिंह,
भद्र, पद्म,
सिद्ध
श्रेष्ठ है
4.
प्राणायाम
5.
प्रत्याहार
6.
धारणा
7.
ध्यान
8.
समाध
o इन 8
अंगों के
अलावा हठयोग
में
महामुद्रा
महाबन्धो
महावेधश्च
खेचरी ।
जालन्धरोड्डियाणश्च
मूलबन्धैस्तथैव
च ॥
दीर्घप्रणवसन्धानं
सिद्धान्तश्रवणं
परम् ।
वज्रोली
चामरोली च
सहजोली
त्रिधा मता ॥
महामुद्रा
महाबंध
महावेध
खेचरी
जालंधर
उड्यान
मूलबंध
दीर्घ
प्रणवसंधान
सिद्धांत
श्रवण
वज्रोली
अमरोली
सहजोली
योग
के अभ्यास में
प्रारंभ में
आने वाले विघ्न
आलस्यं
कत्थनं
धूर्तगोष्टी
मन्त्रादिसाधनम्
॥
धातुस्त्रीलौल्यकादीनि
मृगतृष्णामयानि
वै ।
आलस्य
कत्थन -
स्व प्रशंसा
धूर्त
गोष्ठी
मंत्र आदि
साधनम् - मंत्र
जप करना
धातु सोना,
चांदी, आदि
स्त्री
लोलुपता - चंचलता
o इन्हें
मृगतृष्णा के
समान छोड़
देना चाहिए - ज्ञात्वा
सुधीस्त्यजेत्सर्वान्विघ्नान्पुण्यप्रभावतः
॥
विघ्नों
को हटाने के
पश्चात ही
पद्मासन में बैठकर
एक छोटी सी
कुटिया में
प्राणायाम का
अभ्यास करना
चाहिए
मठ
की विशेषता
o सुशोभनं
मठं
कुर्यात्सूक्ष्मद्वारं
तु निर्व्रणम्
॥
सुष्ठु
लिप्तं
गोमयेन सुधया
वा प्रयत्नतः
।
मत्कुणैर्मशकैर्लूतैर्वर्जितं
च प्रयत्नतः ॥
दिने दिने च
संमृष्टं
संमार्जन्या
विशेषतः ।
वासितं च
सुगन्धेन
धूपितं
गुग्गुलादिभिः
॥
सुशोभन
सूक्ष्मा
द्वार
छिद्र से
रहित
गोबर से
अच्छी तरह से
लिपा हुआ
खटमल,
मच्छर, मकड़ी इत्यादि
से रहित हो
सम्मार्जनी
(झाड़ू) से
प्रतिदिन साफ
करें
गुग्गुल
इत्यादि की
सुगंधित धूप
जलाएं
तत्पश्चात
आसन -
o नात्युच्च्ह्रितं
नातिनीचं
चैलाजिनकुशोत्तरम्
।
तत्रोपविश्य
मेधावी
पद्मासनसमन्वितः
॥
ऊंचा नीचा
ना हो
वस्त्र या
अजिन (मृग
चर्म)
कुश के
आसन पर बैठकर पहले
इष्ट देवता को
प्रणाम करें
पश्चात प्राणायाम
करें
प्राणायाम
विधि
o ततो
दक्षिणहस्तस्य
अङ्गुष्ठेनैव
पिङ्गलाम् ॥
दहीने हाथ
के अंगूठे से
पिंगला को निरुद्ध
करें,
o निरुध्य
पूरयेद्वायुमिडया
तु शनैः शनैः
।
यथाशक्त्यविरोधेन
ततः
कुर्याच्च
कुम्भकम् ॥
इडा से
पूरक, कुंभक
तथा पिंगला से
रेचक करना है
o पुनस्त्यजेत्पिङ्गलया
शनैरेव न
वेगतः । पुनः
पिङ्गलयापूर्य
पूरयेदुदरं
शनैः ॥
फिर
पिंगला से रेचन
और रिपीट
1
मात्रा - 1
चुटकी बजाने
का समय
4 बार
प्रातः, मध्याह्न,
सायं,
अर्धरात्रि
20-20
o एवं मासत्रयाभ्यासान्नाडीशुद्धिस्ततो
भवेत् ।
इस प्रकार
3 मास तक
प्रयास करने
से नाड़ी
शुद्ध हो जाती
है
नाड़ी
शुद्धि के बाह्य
लक्षण
o शरीरलघुता
दीप्तिर्जाठराग्निविवर्धनम्
॥
कृशत्वं च
शरीरस्य तदा
जायेत
निश्चितम् ।
लघुता
कांति
जठराग्नि
प्रदीप्त
शरीर में
कृषता
अपथ्य
o लवणं
सर्षपं
चाम्लमुष्णं
रूक्षं च
तीक्ष्णकम् ।
शाकजातं
रामठादि
वह्निस्त्रीपथसेवनम्
॥
o खाने की
दृष्टि से
आहार
लवण
तेल
आंवला
उष्ण
रूक्ष
तीक्ष्ण
शाक से उत्पन्न
पदार्थ
o अन्य
अग्नि
स्त्री
मार्ग का
सेवन
प्रात
स्नान
उपवास
शरीर को
कष्ट देने
वाले कार्य
पथ्य
o अभ्यासकाले
प्रथमं शस्तं
क्षीराज्यभोजनम्
॥
योग के
प्रारंभ में दूध
और घी का
सेवन करना
चाहिए
o गोधूममुद्गशाल्यन्नं
योगवृद्धिकरं
विदुः ।
गेहूं और चावल
का सेवन योग
में वृद्धि
करने वाला है
o यथेष्टवायुधारणाद्वायोः
सिद्ध्येत्केवलकुम्भकः
।
ऐसा आहार
लेने से साधक
यथेष्ट वायु
धारण करने में
समर्थ हो जाता
है, जिससे
साधक केवल
कुंभक करने
में सिद्ध हो
जाता है
केवल
कुंभक का फल
o न तस्य
दुर्लभं किञ्चित्त्रिषु
लोकेषु
विद्यते ।
तीनों लोकों
को में कुछ भी
दुर्लभ नहीं
रहता
कुंभक
की सिद्धि की 4
स्थिति
o प्रथम
स्थिति - प्रस्वेदो
जायते पूर्वं
मर्दनं तेन
कारयेत् ॥ स्वेद
उत्पन्न (शरीर
पेमल ना)
o द्वितीय
स्थिति - कम्पो
भवति देहस्य
आसनस्थस्य
देहिनः ॥ शरीर में कंपन
o तृतीय
स्थिति - यथा
च दर्दुरो भाव
उत्प्लुन्योत्प्लुत्य
गच्छति
॥ दार्दुरी (मेंढक)
का सिद्धि
o चतुर्थ
स्थिति - ततोऽधिकतरभ्यासाद्भूमित्यागश्च
जायते ॥ भूमि
का त्याग
प्राणायाम
की सिद्धियां - चतुर्थ
स्थिति के बाद
उत्पन्न
o अतिमानुषचेष्टादि
तथा सामर्थ्यमुद्भवेत्
॥
अतिमानव
की शक्तियां
o अल्पमूत्रपुरीषश्च
स्वल्पनिद्रश्च
जायते ।
मल मूत्र
में कमी
निद्रा कम
आती है (स्वल्प
निद्रा)
o कीलवो
दृषिका लाला
स्वेददुर्गन्धतानने
॥
एतानि
सर्वथा तस्य न
जायन्ते ततः
परम् ।
कीलव (कीचड़)
दूषिका (नाक
के मल) लाला (थूक)
स्वेद और मुख
से गंध, यह सब
उस योगी के
नहीं होते।
o ततोऽधिकतराभ्यासाद्बलमुत्पद्यते
बहु ॥
o येन
भूचर सिद्धिः
स्याद्भूचराणां
जये क्षमः ।
अत्यधिक
बल का प्राप्त
होना जिससे
भूचर (भूमि
पर चलने वालों
को कंट्रोल
करना) की
सिद्धि
प्राप्त होती
है
o सिंहो
वा योगिना तेन
म्रियन्ते
हस्तताडिताः
।
भयंकर पशु
भी योगी के
हाथ मारने से
मर जाता है
o तद्रूपवशगा
नार्यः
काङ्क्षन्ते
तस्य सङ्गमम्
।
कामदेव के
समान
o योगिनोऽङ्गे
सुगन्धश्च
जायते
बिन्दुधारणात्
॥
ऊर्ध्वरेतस् (वीर्य का)
जिससे शरीर
में सुगंधित
पैदा होता है
ततो
रहस्युपाविष्टः
प्रणवं
प्लुतमात्रया
।
जपेत्पूर्वार्जितानां
तु पापानां
नाशहेतवे ॥
o पूर्वार्जित
पापों के नाश
के लिए प्रणव
का प्लुत
मात्रा से जाप
करें, ऐसा
करने से योग
की आरंभावस्था
सिद्ध होती है
घटावस्था
- प्राणायाम
का अभ्यास
करने से यह
अवस्था प्राप्त
होती है
o ततो
भवेद्धठावस्था
पवनाभ्यासतत्परा
।
प्राणोऽपानो
मनो
बुद्धिर्जीवात्मपरमात्मनोः
॥
o स्वरूपः
प्राण,
अपान की एकता
मन बुद्धि
की एकता
जीवात्मा
परमात्मा की
एकता हो जाती
है
प्रत्याहार - कुंभक
के स्थिर होने
पर इंद्रियों
को उनके
विषयों से
खींच देना
प्रत्याहार
है
o इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यो
यत्प्रत्याहरणं
स्फुटम् ॥
प्रत्याहार
की स्थिति में
योगी
इंद्रियों के
सभी विषयों को
आत्मवत् ह
समझे
o प्रत्याहार
का अभ्यास
प्रतिदिन 1
प्रहर (3 घंटे)
करना चाहिए
o फल
o दूरश्रुतिर्दूरदृष्टिः
क्षणाद्दूरगमस्तथा
॥
वाक्सिद्धिः
कामरूपत्वमदृश्यकरणी
तथा ।
मलमूत्रप्रलेपेन
लोहादेः
स्वर्णता
भवेत् ॥
खे
गतिस्तस्य
जायेत
सन्तताभ्यासयोगतः
।
दूरदृष्टि
दूर
श्रुति
वाक्
सिद्धि
एक क्षण
में ही बहुत
दूर चला जाता
है
आकाश
विचरण
मल मूत्र
के लेप से
लोहे इत्यादि
को सोना बनाता
है
o एते
विघ्ना
महासिद्धेर्न
रमेत्तेषु
बुद्धिमान् ।
न
दर्शयेत्स्वसामर्थ्यं
यस्यकस्यापि
योगिराट् ॥
ये सभी
सिद्धियां
योग में बाधक
है, प्रदर्शन
नहीं करना
चाहिए तथा
लगातार योग का
अभ्यास करने
पर घटावस्था
प्राप्त होती
है (प्राणायाम
और
प्रत्याहार
से)
परिचयावस्था
- अग्नि
के साथ
कुंडलिनी की
भावना करके
बिना किसी निरोध
के वायु का
सुषुम्ना में
जब प्रवेश हो
जाता है तब
परिचयावस्था
प्राप्त होती
है।
उस
वायु के
साथ-साथ चित्त
का भी
सुषुम्ना में
प्रवेश कराना
चाहिए, जिसके
सिद्ध होने पर
5 प्रकार की
धारणाएं
सिद्ध हो जाती
है।
तत्व |
बीज |
स्थान शरीर
में |
देवता |
वर्ण |
पृथ्वी |
लं |
पैर से घुटना |
चतुर्मुख ब्रह्म |
पीला |
जल |
वं |
घुटने से
गुदा |
नारायण/विष्णु |
सफेद |
अग्नि |
रं |
गुदा से हृदय |
रुद्र |
लाल |
वायु |
यं |
हृदय से
भूमध्य |
ईश्वर |
कृष्ण |
आकाश |
हं |
भ्रूमध्य से
मूर्धा |
सदाशिव |
धूम्र |
5
घटिका समय
इनका ध्यान
करें
इन
5 तत्वों पर
अधिकार
प्राप्त करने
से सिद्धियां
प्राप्त होती
है
ध्यानः-
o समभ्यसेत्तथा
ध्यानं
घटिकाषष्टिमेव
च ।
वायुं निरुध्य
चाकाशे
देवतामिष्टदामिति
॥
6 घड़ी तक वायु
को निरुद्ध
करके आकाश
तत्व पर इष्ट
सिद्धियों को
देने वाले
देवता उसके
गुणों सहित
ध्यान करना
चाहिए।
o सगुणं
ध्यानमेतत्स्यादणिमादिगुणप्रदम्
।
इसे
सगुण ध्यान
कहा गया है,
जिससे अणिमा
आदि
सिद्धियों
की प्राप्ति
होती है।
o भ्रूकुटु
मध्य श्रीहरि
का ध्यान करना
है
o निर्गुणध्यानयुक्तस्य
समाधिश्च ततो
भवेत् ॥
निर्गुण
ध्यान से समाधि
की प्राप्ति
होती है
समाधि
- निर्गुण
ध्यान को यदि
योगी 12 दिन तक
कर लेता है तो
समाधि
प्राप्त कर
लेता है
o जीवात्मा और परमात्मा
की साम्यावस्था
समाधि
o लाभ
शरीर को
त्याग कर सकता
है
ब्रह्म
में लीन
पुनर्जन्म
नहीं होता
किसी भी
प्राणी के रूप
को धारण कर
सकता है
मुद्राएं
o महावेधः
o महाबंध
o खेचरी
o उड्याण
बंध
o जालंधर
बंध
o योनी
(मूलबंध)
o विपरीतकरणी
o वज्रोली
o अमरोली
o सहजोली
राजयोग
- पहले
की सभी
क्रियाओं के
अभ्यास से
योगी राजयोग
का अधिकारी बन
जाता है,
जिससे योगी
में विवेक और
वैराग्य
उत्पन्न हो
जाता है
यदा तु
राजयोगेन
निष्पन्ना योगिभिः
क्रिया ॥
तदा
विवेकवैराग्यं
जायते योगिनो
ध्रुवम् ।
विष्णुर्नाम
महायोगी
महाभूतो
महातपाः ॥
ऐसा
महायोगी
विष्णु है
संपूर्ण
संसार ओम् के
3 अक्षरों
में ओत प्रोत
है
उन
3 अक्षरों के
साथ अर्धमात्रा
भी है
अकारे
रेचितं
पद्ममुकारेणैव
भिद्यते ॥
मकारे लभते नादमर्धमात्रा
तु निश्चला ।
o हृदय स्थल
में एक कमल है
जिसके अंदर मन
प्रतिष्ठित
है, जिसे अकार
के द्वारा
रचित किया (खोला)
जाता है, उकार के
द्वारा भेदा
तथा मकार के
द्वारा नाद
प्राप्त होता
है
अर्धमात्रा
निश्चल रहती
है, वह शुद्ध
स्फटिक के
समान शुद्ध है
और पाप नाशक
है